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________________ मन : पर्यवज्ञान / 301 कारण भी मति, श्रुत आदि ज्ञानों के समान केवलज्ञानावरण का उदय है। वस्तुतः ज्ञानचेतना अखण्ड है और जब वह पूर्णतः अनावृत होती है तब केवलज्ञान उत्पन्न होता है। छद्मस्थ अवस्था में केवलज्ञानावरण का उदय रहता है। तथा इसी समय मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण एवं मनःपर्यवज्ञानावरण आदि ज्ञानावरण प्रकृतियों का क्षयोपशम होता है, तब उन-उन ज्ञानों की प्राप्ति होती है। ज्ञान के प्रकटीकरण में ज्ञानावरण के समान अन्तरायकर्म की भी अहम् भूमिका है। इसलिए स्वामी पूज्यपाद अकलंक आदि ने मनःपर्यवज्ञान की उत्पत्ति में दो कर्मों के क्षयोपशम को प्रधानता दी है। . 1. वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम। 2. मनःपर्यवज्ञानावरणीय का क्षयोपशम / दिगम्बर मान्यता के अनुसार जिस प्रकार अवधिज्ञान की उत्पत्ति शरीरगत करण चिह्नों से होती है, मतिज्ञान में इन्द्रिय, मन आदि की करणता स्वीकार की गई है, उसी प्रकार मनःपर्यवज्ञान का भी अपना नियत करण है / उस करण का नाम है मन / उनके अनुसार जिस प्रकार इन्द्रियों की निवृत्ति के लिए अंगोपांग नामकर्म का उदय अपेक्षित है, उसी प्रकार अष्ट पंखुड़ीवाले विकसित कमल के समान आकृतिवाले मन की निवृत्ति के लिए भी अंगोपांग नामकर्म का उदय अपेक्षित है। इस प्रकार मनःपर्यवज्ञान का एक कारण अंगोपांग नामकर्म का उदय भी है। ___श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार जिस प्रकार चक्षुर्विज्ञान आलोक सापेक्ष होता है उसी प्रकार मन का ज्ञान मनोवर्गणा सापेक्ष होता है / मनन करने में जो पुद्गल प्रयुक्त होते हैं, उनकी आकृतियों, पर्यायों के द्वारा ही मनःपर्यवज्ञानी दूसरे के मन का ज्ञान करते हैं। मनःपर्यवज्ञान की विषय मर्यादा - मनःपर्यवज्ञान अप्रमत्त साधु को होनेवाला विशिष्ट ज्ञान है / यह क्षायोपशमिक ज्ञान है अतः इसकी अपनी कुछ मर्यादाएं हैं। अरूपी द्रव्य इसके विषय नहीं बनते क्योंकि यह द्रव्य मन की पर्यायों का साक्षात्कार करता है / मनःपर्यवज्ञान अवधिज्ञान से कम रूपी द्रव्य को जानता है / आचार्य उमास्वाति ने मनःपर्यवज्ञान की विषय मर्यादा का सामान्य कथन करते हुए बताया है कि इसका विषय सर्वावधि के विषय का अनन्तवां भाग है। ___ व्याख्याप्रज्ञप्ति एवं नन्दीसूत्र में मनःपर्यवज्ञान की विषय-मर्यादा का द्रव्य, क्षेत्र काल एवं भाव इन चार दृष्टियों से विवेचन उपलब्ध होता है। ही है।
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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