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________________ ऋजुमति 300 / आर्हती-दृष्टि विपुलमति 1. विशुद्ध 1. विशुद्धतर 2. प्रतिपात 2. प्रतिपात रहित आचार्य देववाचक ने विपुलमति मनःपर्यवज्ञान के क्षेत्र को ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान के क्षेत्र से ढ़ाई अंगुल अधिक बताते हुए चार भेदक विशेषणों का प्रयोग किया है। - अभ्यधिकता-एक दिशा से बड़ा होना अभ्यधिकता है। जैसे एक बड़ा घड़ा छोटे घड़े की अपेक्षा जलधारण की दृष्टि से अभ्यधिक होता है वैसे ही ऋजुमति के ज्ञातव्य क्षेत्र से विपुलमति का ज्ञातव्य क्षेत्र अधिक होता है अथवा आयाम एवं विष्कम्भ (लम्बाई, चौड़ाई) की अपेक्षा क्षेत्र की अधिकता ही अभ्यधिकता है। 2. विपुलतरता-हर दृष्टि से या सब तरह से बड़ा होना विपुलता है। बड़ा घट घटाकाश की अपेक्षा छोटे घट से बड़ा होता है, उसी प्रकार ऋजुमति की अपेक्षा विप्लमति का ज्ञेय क्षेत्र मनोलब्धि वाले जीव द्रव्य के आधार की अपेक्षा विशाल है। 3. विशुद्धतरता-जिस प्रकार दीपक ट्यूबलाइट आदि प्रकाशक द्रव्य जितनी अधिक प्रकाशक क्षमतावाले होते हैं, पदार्थ उतने ही स्पष्ट अवभासित होते हैं / उसी प्रकार चारित्रिक विशुद्धि एवं क्षयोपशम वैशिष्ट्य के कारण विपुलमति की ज्ञान क्षमता विशुद्धतर होती है। 4. वितिमिरतरता बार-बार आवरण आने से आलोकित क्षेत्र भी तिमिरमय हो जाता है तथा ज्ञेय की स्पष्टता में कमी आ जाती है। विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी का चारित्र इतना विशुद्ध होता है कि उसके पुनः मनःपर्यवज्ञानावरण का बन्धन नहीं होता तथा पूर्वबद्ध कर्म भी विपाकोदय में नहीं रहते, अतः वह ज्ञान ऋजुमति की अपेक्षा वितिगिरतर-अन्धकाररहित होता है। ऋजुमति केवल व्यक्त मन को ही जानता है जबकि विपुलमति अव्यक्त मन को भी जानने की क्षमता रखता है, अतः अचिन्तित, अनुक्त और अकृत का ग्रहण अग्रहण भी इन दोनों का भेदक है। मनोविज्ञान की भाषा में ऋजुमति को सरल मनोविज्ञान और विपुलमति को जटिल मनोविज्ञान कहा जा सकता है। मनःपर्यवज्ञान का कारण कर्मशास्त्रीय मीमांसा के अनुसार, मनःपर्यवज्ञान वैभाविक ज्ञान है, अतः उसका
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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