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________________ 14 / आईती-दृष्टि है, उदाहरणत: ‘जैन योग में अनुप्रेक्षा' नामक लेख के प्रारम्भिक कुछ वाक्य लें-'यह संसार शब्द एवं अर्थमय है। शब्द अर्थ के बोधक होते हैं। अर्थ व्यङ्गय एवं शब्द व्यञ्जक होता है। साधना के क्षेत्र में शब्द एवं अर्थ दोनों का ही उपयोग होता है। साधक शब्द के माध्यम से अर्थ तक पहुंचता है तथा अन्तत: अर्थ के साथ उसका तादात्म्य स्थापित हो जाता है। अर्थ से तादात्म्य स्थापित होने से ध्येय, ध्यान एवं ध्याता का वैविध्य समाप्त होकर उनमें एकत्व हो जाता है / उस एकत्व की अनुभूति में योग परिपूर्णता को प्राप्त होता है। इसी प्रकार सम्यक् दर्शन के महत्त्व को प्रतिपादित करने के लिए लेखिका द्वारा यह उद्धरण दिया जाना पाठक के मन पर गहरी छाप छोड़ता है भ्रष्टेनापि च चारित्राद् दर्शनमिह दृढ़तरं ग्रहीतव्यं / सिध्यन्ति चरणरहिता दर्शनरहिता न सिध्यन्ति / ऐसा प्रतीत होता है कि जैन दर्शन के इतिहास में अनेक पड़ाव ऐसे आये जब जैन दर्शन ने किन्हीं चुनौतियों का सामना करने के लिए नया मोड़ लिया। सूत्रयुग की चुनौतियों को तत्त्वार्थसूत्र ने झेला ।प्रमाण-युग की चुनौतियों का न्यायावतार और आप्तमीमांसा ने सामना किया। अध्यात्म-प्रधान स्वर को कुन्द-कुन्द ने मुखरित किया। चारित्र की शिथिलता का मुकाबला आचार्य भिक्षु ने किया। आज के युग में दो नई चुनौतियां जैन दर्शन के सामने हैं-एक पाश्चात्य चिन्तन एवं दूसरा विज्ञान / समणी मंगलप्रज्ञाजी ने अपने लेखों में इन दोनों चुनौतियों को अपने सामने रखते हुये विचार-विमर्श किया है। आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करते समय उन्होंने न केवल पाश्चात्य दार्शनिकों का मत अपितु वैज्ञानिकों का मत भी दिया है ।पुनर्जन्म के सम्बन्ध में प्रोटो-प्लाज्मा का उल्लेख अत्यन्त रोचक एवं ज्ञानवर्धक है। नन्दी के कथन 'अक्खरस्स अणंततमो भागो निच्चुघाडिओ हवई' का Cosmological Freedom के साथ सम्बन्ध स्थापित करना लेखिका की बहुश्रुतता का परिचायक है / इसी प्रकार 'द्रव्य एवं अस्तिकाय की अवधारणा' के संदर्भ में लेखिका ने न केवल जैनेतर भारतीय दर्शन का अपितु पाश्चात्य दर्शनों का भी मत बहुलतया उद्धृत किया है / परिणामवाद के प्रसंग में Philosophy of being तथा Philosophy of becoming का उल्लेख सर्वथा प्रासङ्गिक है / जैन लोकवाद के सिद्धान्त की डार्विन के विकासवाद से तुलना भी लोकवाद और विकासवाद के अध्येताओं के लिए ज्ञानवर्धक सिद्ध होगी। ज्ञान के पाँच प्रकारों का साङ्गोपाङ्ग वर्णन जैन ज्ञान-मीमांसा के अध्येताओं के लिए प्रामाणिक
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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