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________________ भगवती के सन्दर्भ में सप्तभंगी भगवती-सूत्र जैन-परम्परा का प्राचीन आगम ग्रन्थ है / उसमें अनेक विषयों का सांगोपांग प्रतिपादन किया गया है। स्याद्वाद जो जैन दर्शन की पृष्ठभूमि है, उसका उल्लेख इस आगम में है। सप्तभंगी वस्तु के कथन की शैली है / उसके प्राचीन भंगों का वर्णन भगवती में प्राप्त है / वर्तमान सप्तभंगी का उत्स भगवती-सूत्र में है / यद्यपि उसमें भंगों के प्रकारों का वर्णन पृथक् रूप से है किन्तु वह तो मात्र कथन का तरीका है उसमें कोई विप्रतिपत्ति नहीं। . __ भगवती में वस्तुओं का निर्णय उनके भंगों के आधार पर है / अमुक अपेक्षा से वस्तु है, अमुक अपेक्षा में नहीं है तथा किसी तीसरी अपेक्षा से वस्तु अवक्तव्य है। गौतम भगवान् महावीर से रत्नप्रभा पृथ्वी का स्वरूप पूछते हैं। भगवान् कहते हैंरयणपहा पुढवी सिय आया, सिय नो आया, सिय अवत्तव्वा / रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् आत्मा है, स्यात् नहीं है और स्यात् अवक्तव्य है। इस प्रकार गौतम पूछते जाते हैं। एक परमाणु के सन्दर्भ तक यही उत्तर प्राप्त होता है / वस्तु अपनी अस्तित्व की अपेक्षा से है, दसरे के अस्तित्व की अपेक्षा से नहीं है। अस्तित्व नास्तित्व का कथन एकसाथ नहीं हो सकता अतः वह अवक्तव्य है। भगवती के अनुसार जो संख्या की दृष्टि से एक है उसके तीन ही भंग हो सकते हैं / तीन से अधिक नहीं हो सकते / जैसे भगवान् ने रत्नप्रभा पृथ्वी से लेकर एक परमाण पदगल तक उत्तर दिया है उसके तीन-तीन भंग ही होते हैं / द्विप्रदेशी के बारे में पूछने पर उत्तर मिला उसके 6 भंग हो सकते हैं, सात नहीं हो सकते। तीन तो परमाणु के संदर्भ जैसे हैं / तीन संयोगज भंग और हो जाते हैं। तीन प्रदेशी स्कन्ध के 13 भंग हो जाते हैं। उसके सात भंग स्यात् अस्ति नास्ति एवं अवक्तव्य यह भंग त्रिप्रदेशी से लेकर आगे के परमाणु पुद्गल के हो सकते हैं / द्विप्रदेशी के नहीं हो सकते क्योंकि द्विप्रदेशी के दो ही प्रदेश हैं जबकि यह त्रयात्मक कथन है / अस्ति नास्ति तथा अवक्तव्य / अतः यह भंग दो प्रदेशी स्कन्ध के पश्चात् ही सम्भव है / इसी प्रकार चार-पांच-छः प्रदेशी के सन्दर्भ में जिज्ञासा करने पर उन्हीं का इसी प्रकार उत्तर उपलब्ध होता है / उनके भंगों की संख्या की भी वृद्धि होती चली जाती है / प्रश्न उपस्थित होता है कि जब भगवती में भंगों की संख्या सात से अधिक है तब आज हम सप्तभंगी का ही उल्लेख क्यों करते हैं। इसका समाधान यही है कि
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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