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________________ श्रुतानुसारी अश्रुतानुसारी की अवधारणा जैन-परम्परा में पांच ज्ञान की अवधारणा भगवान् महावीर से पूर्ववर्ती है। राजप्रश्नीय सूत्र में केशीश्रमण के सम्वाद से इसकी अवगति होती है / आगमकाल में मति आदि पांच ज्ञानों का उल्लेख प्राप्त है किन्तु तार्किक युग में इन अवधारणाओं में परिवर्तन हुआ है वह आचार्य सिद्धसेन की देन है / आचार्य सिद्धसेन ने मति-श्रुत एवं अवधि-मनःपर्यव में भेद नहीं माना है। निश्चयद्वात्रिंशिका में उन्होंने कहा 'वैयर्थ्यातिप्रसंगाभ्यां न मत्यभ्यधिकं श्रुतम्' मति से अतिरिक्त श्रुतज्ञान नहीं है। उसे अतिरिक्त मानने से व्यर्थता और अतिप्रसंगता उपस्थित होती है। किन्तु सिद्धसेन की इस मान्यता का समर्थन उनके उत्तरवर्ती आचार्यों ने नहीं किया। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने स्पष्ट रूप से पाँच ज्ञान की आगमिक परम्परा को ही स्वीकृति दी है / ज्ञान-बिन्दु के कर्ता आचार्य यशोविजयजी ने भी आगमिक परम्परा का साथ दिया है तथा सिद्धसेन के पूर्वपक्ष को ध्यान में रखकर मतिज्ञान और श्रुतज्ञान की परिभाषा प्रस्तुत की है—मतिज्ञानत्वं श्रुताननुसार्यनतिशयित ज्ञानत्वम्, अवग्रहादिक्रमवदुपयोगजन्यज्ञानत्वं वा। श्रुततु श्रुतानुसार्येव। ज्ञान-बिन्दु पृ.६ उपर्युक्त परिभाषाओं में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा प्रदत्त परिभाषा का प्रति बिम्ब है इंदियमणोनिमितं जं विण्णाणं सुयानुसारेणं। निययत्युत्तिसमत्थं तं भावसुयं मई सेसं॥ विशेषावश्यक भाष्य गा. 100 - जो ज्ञान श्रुतानुसारी नहीं होता वह मतिज्ञान है तथा जो श्रुतानुसारी होता है वह श्रुतज्ञान है। प्रस्तुत प्रकरण में श्रुतानुसारित्व तथा श्रुताननुसारित्व की व्याख्या करना उपयुक्त होगा। श्रुतानुसारित्वं च धारणात्मकपदार्थसम्बन्धप्रतिसंधानजन्यत्व-ज्ञानत्वं . ज्ञानबिन्दु, पृ. 6
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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