________________ 336 / आर्हती-दृष्टि धारणात्मक ज्ञान के द्वारा वाच्य वाचक सम्बन्ध के संयोजन से जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह श्रुतानुसारी है। इसकी ही प्रतिध्वनि नन्दी टीका में है।- 'संकेतकालप्रवृत्तं श्रुतग्रन्थसम्बन्धिनं वाघटादिशब्दमनुसृत्य वाच्यवाचकभावेन संयोज्य 'घटो घटः' इत्याद्यन्त ल्पाकारमन्तशब्दोल्लेखान्वितमिन्द्रियादिनिमित्तं यज्ज्ञानमुदेति तच्छुतज्ञानमिति।' नन्दीसूत्रम्। - संकेतकाल में तथा श्रुतग्रन्थ से सम्बन्धित घटादि शब्द का अनुसरण करके वाच्यवाचक भाव से युक्त 'यह घट है' / इस प्रकार शब्दोल्लेख से सम्पन्न इन्द्रियादि के द्वारा उत्पन्न ज्ञान श्रुतानुसारी होने से श्रुतज्ञान है। संकेत, परोपदेश, श्रुतग्रन्थात्मकशब्द के अनुसार, उत्पन्न होनेवाला श्रुतानुसारी श्रुतज्ञान है। धारणात्मक ज्ञान के द्वारा वाच्य-वाचक सम्बन्ध संयोजन के बिना तथा संकेत परोपदेश आदि के बिना जो ज्ञान उत्पन्न होता है। वह अश्रुतानुसारी (श्रुताननुसारी) मतिज्ञान है। Those Congnitions of objects, which are totally free from all verbal associations or at best are conversant with the mere names of their objects, fall in the category of Math, which while their Further continuations with the help of the language fall in the category of Sruta. ___Studies in Jaina Philosophy. p.56. जो ज्ञान शब्दोल्लेखयुक्त होता है वह श्रुतज्ञान है तथा जो शब्दोल्लेखरहित होता है वह मतिज्ञान है / इस सन्दर्भ में शंका प्रस्तुत करते हुए कहा गया कि यदि शब्दोल्लेखी श्रुतज्ञान ही है तब अवग्रह ही मति का भेद हो सकता है / अवशिष्ट ईहा आदि सामिलाप होने से मतिज्ञान के भेद नहीं हो सकते तथा ऐसा स्वीकार करने से श्रुतज्ञान का लक्षण अतिव्याप्ति दोष से तथा मतिज्ञान का लक्षण अव्याप्ति दोष से दूषित हो जाएगा। क्योंकि शब्दोल्लेख श्रुतज्ञान की तरह ईहा आदि में भी प्राप्त है तथा शब्दोल्लेख विकलता मतिज्ञान के सारे भेदों में नहीं है। समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा गया कि यद्यपि ईहा आदि साभिलापं है किन्तु सशब्द होने मात्र से वे श्रुतरूप नहीं हो सकते / मति के अंगभूत ईहा आदि साभिलाप होनेपर भी श्रुतानुसारी नहीं है, वे श्रुतज्ञान के भेद नहीं है। अतः मतिज्ञान के लक्षण