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________________ श्रुतानुसारी अश्रुतानुसारी की अवधारणा | 337 में अव्याप्ति दोष की उद्भावना नहीं हो सकती तथा श्रुतज्ञान सशब्दता के साथ श्रुतानुसारी होगा। अतः इसका लक्षण भी अतिव्याप्ति दोष दूषित नहीं है। अतएव मतिज्ञान के भेद ईहा आदि में तथा श्रुतज्ञान में साक्षरत्व की समानता होने पर भी इनके लक्षणों में संकीर्णता नहीं हो सकती।। ____ पुनः शंका उपस्थित करते हुए कहा गया ईहा आदि का साभिलापत्वयुक्ति सिद्ध है क्योंकि संकेतकाल में सुने गए शब्दों के बिना यह उत्पन्न नहीं होती है, फिर इनको श्रुतानुसारी क्यों नहीं कहा गया है। समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा गया कि पहले श्रुतपरिकर्मित मति से उत्पन्न होने के कारण इनको श्रुतनिश्रित कहा गया किन्तु व्यवहारकाल में उनका श्रुतानुसारित्व नहीं है। अतएव वे श्रुतनिश्रित तो है : किन्तु श्रुतानुसारी नहीं है। ____ मतिज्ञान अश्रुतानुसारी ही होता है। किन्तु वह श्रुतनिश्रित भी होता है तथा अश्रुतनिश्रित भी होता है। स्थानांग-सूत्र में आभिनिबोधिक को श्रुत-अश्रुतनिश्रित के भेद से दो प्रकार का कहा गया है तथा उनके भी व्यञ्जनावग्रह अर्थावग्रह के भेद से दो प्रकार बतलाए गए हैं। "These avagraha the etc. can be either shrutanisrita backed by scriptural learning as asrutanisrita not backed by scriptural learning. -Studies in Jaina Philosophy--p.44. नन्दी में श्रुतनिश्रित, अश्रुतनिश्रित ये दोनों भेद मतिज्ञान के बताए हैं किन्तु अवग्रहादि श्रुतनिश्रित के भेद हैं तथा औत्पत्तिकी आदि अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान के भेद के रूप में व्याख्यायित है तथा अश्रुतनिश्रित के अवग्रह आदि होते हैं या नहीं, इसका उल्लेख नहीं है / जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने स्थानांग की परम्परा का अनुपालन करते हुए श्रुत-अश्रुत निश्रित दोनों के अवग्रह आदि माने हैं तथा औत्पत्तिकी बुद्धि के अवग्रह आदि का कुक्कुट के दृष्टान्त से निरूपण किया है। . नन्दी के अनुसार, अवग्रह आदि केवल श्रुतनिश्रित मति के प्रकार हैं तथा 'स्थानांग के अनुसार दोनों के हैं। प्रश्न उपस्थित होता है औत्पत्तिकी बुद्धि से व्यञ्जनावग्रह कैसे हो सकता है क्योंकि बुद्धि इन्द्रिजाज नहीं किन्तु मानसिक है / मन अप्राप्यकारी होने से उसके व्यञ्जनावग्रह नहीं हो सकता। इसका समाधान स्थानांगवृत्तिकार ने दिया है। उन्होंने अश्रुतनिश्रित मति के भी दो प्रकार बतलाए हैं।
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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