________________ तत्त्ववाद के क्षेत्र में जैन दर्शन की मौलिक देन / 109 में पर्याप्त अन्तर है / जिसकी व्याख्या के लिए अलग से विमर्श करने की आवश्यकता है। संक्षेप में जैन दृष्टि के अनुसार परमाणु चेतना का प्रतिपक्षी है, जबकि डेमोक्रेट्स के अनुसार आत्मा भी सूक्ष्म परमाणुओं का विकास मात्र है / वैशेषिकों ने चार प्रकार के परमाणु स्वीकार किये हैं-पृथ्वी, पानी अग्नि एवं वायु / ये चार प्रकार के परमाणु आपस में सर्वथा भिन्न हैं इनके द्वारा स्थूल कार्यों की उत्पत्ति होती है। __जैन दृष्टि के अनुसार पुद्गल का सूक्ष्म अविभाज्य अंश परमाणु कहलाता है।' वैशेषिक की तरह इसके परमाणु पृथक् नहीं हैं / वे एक ही प्रकार के होते हैं / परमाणओं की स्निग्धता एवं रुक्षता ही पदार्थों की भिन्नता में कारण है / पत्थर' सोना, चांदी, शीशा इत्यादि ये सारे ही पदार्थ एक ही प्रकार के परमाणुओं से निर्मित हैं / कोई भी परमाणु किसी भी रूप में परिणत हो सकता है। यद्यपि आधुनिक विज्ञान पहले इस तथ्य को स्वीकार नहीं करता था वह 92 प्रकार के मौलिक परमाणुओं के अस्तित्व को स्वीकार करता था परन्तु अणु की रचना के सिद्धान्त ने सिद्ध कर दिया है कि सारे परमाणु एक ही प्रकार के होते हैं। इनमें अन्तर सिर्फ इन परमाणुओं में अन्तर्निहित घनाणु Proton और ऋणाणु electron की संख्या से है। जैन शब्दावलि में इनमें अन्तर स्निग्धता एवं रुक्षता के कारण है। वैज्ञानिकों ने अपनी प्रयोगशाला में प्रयोग करके परमाणु की एकरूपता के तथ्य को सिद्ध करके दिखा दिया है। - परमाणुवाद के सन्दर्भ में जैन दर्शन की मौलिक देन परमाणुओं के सम्बन्ध की प्रक्रिया है। परमाणुओं का आपस में सम्बन्ध क्यों होता है ? और कैसे होता है? इसका विवेचन जैन दार्शनिकों ने ही किया है अन्यत्र देखने में नहीं आया। पन्नवणा सूत्र में परमाणुओं के सम्बन्ध की प्रक्रिया को बताते हुए कहा गया- . निद्धस्य निद्धेण दुआहियेण, लुक्खस्स लुक्खेण दुआहियेण. निद्धस्स लुक्छेण स्वेइ बंधो, जहनवावज्जो विसमो समो वा / / अस्तिकाय अस्तिकाय शब्द भी जैन का तत्त्व मीमांसान्तर्गत मौलिक शब्द है। जगत् की व्याख्या में पञ्चास्तिकाय का वर्णन प्राचीन है जबकि द्रव्य शब्द का प्रयोग अर्वाचीन है। अस्तिकाय शब्द जितना सार्थक है उतना द्रव्य नहीं है / अस्ति का अर्थ है—अस्तित्व एवं काय का अर्थ है उत्पत्ति-विनाश / अस्तित्व एवं काय का अर्थ है उत्पत्ति-विनाश एवं ध्रुवतां / अस्तिकाय शब्द जैन के अभिप्राय को व्यक्त करने में समर्थ है जबकि द्रव्य नहीं कर सकता। प्रदेश प्रचय को अस्तिकाय कहा जाता है। काल के प्रदेशों का प्रचय नहीं हो सकता। काल के तिर्यक सामान्य नहीं हैं अतः वह अस्तिकाय भी