________________ 110 / आर्हती-दृष्टि नहीं है / तिर्यक् सामान्य अर्थात् प्रदेशों का प्रचय धर्मादि चार अजीव पदार्थ एवं जीव के ही हो सकता है / अतः इन पाँचों को अस्तिकाय कहा जाता है। षड्जीवनिकाय __षड्जीवनिकाय की व्यवस्था जैन का दार्शनिक जगत् में मौलिक अवदान है। इस प्रकार जीवों की व्यवस्था अन्य किसी भी दर्शन ने नहीं की है। आचार्य सिद्धसेन 'षड्जीवनिकाय' के सिद्धान्त से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने कहा-हे ! भगवन् ! षड्जीवनिकाय की प्ररूपणा ही आपके सर्वज्ञ होने में प्रबल प्रमाण है / तत्त्ववाद के क्षेत्र में जैन की यह एक अद्वितीय देन है। वर्गणा समान जातीय पुद्गल समूह को वर्गणा कहा जाता है / यद्यपि वर्गणाएं अनन्त हैं किन्तु स्थूल रूप से जीव के प्रयोग में आने वाली आठ वर्गणाओं का उल्लेख है-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण, श्वासोच्छवास, भाषा एवं मन। प्रथम पाँच वर्गणाओं से पांच शरीरों का निर्माण होता है। शेष तीन से श्वासोच्छवास, मन एवं वाणी की क्रियाएँ होती हैं। ये वर्गणा सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं। जब तक इनका व्यवस्थित संगठन नहीं बनता तब तक वे स्वानुकूल कार्य करने के योग्य तो रहती हैं किन्तु कर नहीं सकती। इनका संगठन करने वाला प्राणी है। वह जब इनको संगठित करता है तब वे अपना कार्य कर लेती हैं / वर्गणा की स्वीकृति जैन दर्शन की अपनी मौलिक सूझ है / इन वर्गणाओं के परमाणु एक-दूसरी वर्गणा में संक्रमण कर सकते हैं अतएव वैशेषिक के द्वारा स्वीकृत चार प्रकार के परमाणुओं से इनका स्वतः ही भेद हो जाता है क्योंकि वैशेषिकों का मानना है कि पृथ्वी के परमाणु पृथ्वी के ही रहेंगे। वे अग्नि, वायु, जल नहीं बन सकते वैसे ही अन्य परमाणु भी बदल नहीं सकते। लोका-लोकाकाश की अवधारणा प्रायः सम्पूर्ण भारतीय दर्शन ने आकाश तत्त्व को तो स्वीकार किया है / जैन ने भी इसे स्वीकार किया है / किन्तु आकाश के द्विधा विभाग लोकाकाश एवं अलोकाकाश की अवधारणा मौलिक है / अन्य किसी भी दार्शनिक ने ऐसी अवधारणा प्रस्तुत नहीं की है। लोकाकाश एवं अलोकाकाश की परिकल्पना जैन दार्शनिकों की तत्त्ववाद के क्षेत्र में एक विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण देन है / जिसकी तुलना आधुनिक आइन्स्टीन एवं डी सीटर के विश्व आकाश सम्बन्धी सिद्धान्तों से की जा सकती है। इस प्रकार सम्पूर्ण दार्शनिक जगत् जैन दर्शन के मौलिक अवदान से उपकृत है।