________________ 356 / आर्हती-दृष्टि जानने वाला अवधिज्ञान मध्यगत अवधिज्ञान है / षट्खण्डागम के एक क्षेत्र अवधिज्ञान की तुलना अंतगत एवं मध्यगत से की जा सकती है। जिस अवधिज्ञान का करण जीव के शरीर का एक देश होता है वह एकदेश अवधिज्ञान है जो अवधिज्ञान प्रतिनियत क्षेत्र की वर्जना कर शरीर के सब अवयवों में रहता है, वह अनेक क्षेत्र अवधिज्ञान ___ अवधिज्ञान के प्रसंग में आगत अंतगत एवं मध्यगत ये दोनों शब्द शरीर में स्थित चैतन्य केन्द्रों के गमक है / अप्रमाद के अध्यवसाय को जोड़ने वाले शरीरवर्ती साधन को चक्र या चैतन्यकेन्द्र कहा जाता है। ___ इन कर्म विवरों (चैतन्य केन्द्र) से ही अतीन्द्रिय ज्ञान की रश्मियां बाहर निकलती हैं। शरीर का जो स्थान करण, चैतन्यकेन्द्र बन जाता है उसी के माध्यम से ज्ञान रश्मियां बाहर निकलती है अन्य स्थानों से नहीं निकल सकती हैं। जीव प्रदेशों के क्षायोपशमिक विकास के आधार पर चैतन्यकेन्द्रमय शरीर प्रदेशों के अनेक संस्थान बनते हैं। षट्खण्डागम में इसका स्पष्ट उल्लेख है। क्षेत्र की अपेक्षा से शरीर प्रदेश अनेक संस्थान में संस्थित होते हैं। जैसे—श्रीवात्स, कलश, शंख, स्वस्तिक, नंद्यावर्त आदि / भगवती-सूत्र में भी विभंग ज्ञान संस्थानों का उल्लेख किया गया है। उसमें अनेक संस्थानों के नाम उपलब्ध हैं, जैसे-वृषभ का संस्थान, पशु का संस्थान, पक्षी का संस्थान आदि / ____ अवधिज्ञान एवं विभंगज्ञान दोनों शरीरगत संस्थान होते हैं, यह मत निर्विवाद अवधिज्ञान के प्रसंग में षट्खंडागम में करण शब्द का प्रयोग हुआ है। इस प्रसंग में करण शब्द का अर्थ है-शरीर का अवयव, शरीर का एक भाग जिसके माध्यम से अवधिज्ञानी पुरुष विषय का अवबोध करता है। शरीर में कुछ विशिष्ट स्थान होते हैं जहां चेतना सघनता से रहती है / यह सिद्धान्त अनेक ग्रन्थों में स्वीकृत है / सुश्रुत संहिता में 210 संधियों और 107 मर्म-स्थानों का उल्लेख प्राप्त है।६ __अस्थि, पेशी और स्नायुओं का संयोग-स्थल संधि कहलाता है / मर्म-स्थानों में प्राण की बहुलता होती है। शरीर के वे अवयव मर्मस्थान कहलाते हैं। __ चैतन्य केन्द्र इन्हीं मर्म स्थानों के भीतर हैं। हठयोग में भी प्राण और चैतन्य प्रदेशों की सघनता के स्थल ध्यान के आधार-रूप में सम्मत है / जैन साधना पद्धति