________________ शरीर में अतीन्द्रियज्ञान के स्थान /355 आत्मा शरीर के भीतर है और चेतना भी उसके भीतर है। इंद्रिय चेतना की रश्मियां अपने-अपने नियत स्थानों के माध्यम से बाहर आती है तथा पदार्थ जगत् के साथ संपर्क स्थापित करती है। अतीन्द्रियज्ञान के लिए शरीर में कोई नियत स्थान नहीं है किंतु शरीर का जो भी भाग करण बन जाता है उसके द्वारा अतीन्द्रिय चेतना का प्रकटीकरण हो जाता है / अतीन्द्रिय ज्ञान को प्रकट करने के स्थान शरीर में ही है। अवधि-ज्ञान के लिए कोई एक नियत प्रदेश या चैतन्य केन्द्र शरीर में नहीं है। अवधि ज्ञान की रश्मियों के बाहर आने के लिए शरीर के विभिन्न प्रदेश या चैतन्यकेन्द्र साधन बनते हैं। . नंदी-सूत्र में आनुगामिक-अवधिज्ञान के दो भेद किए गए हैं-अंतगत और मध्यगत / अंतगत अवधि वहां पर तीन प्रकार का निर्दिष्ट है—पुरतः अतंगत, मार्गत: (पृष्ठतः) अंतगत एवं पार्श्वतः अंतगत / अवधिज्ञान के ये भेद ज्ञाता शरीर के जिस प्रदेश से इस ज्ञान के द्वारा देखता है, उसके आधार पर किए गए हैं। अंतगत अवधिज्ञान की रश्मियां शरीर के पर्यंतवर्ती (अग्र, पृष्ठ और पार्श्ववर्ती) चैतन्यकेन्द्रों के माध्यम से बाहर आती हैं। पुरतः मार्गतः एवं पार्श्वतः अवधिज्ञान के भेद एवं नामकरण शरीर के आधार पर हुए हैं / शरीर के जिस भाग से अवधिज्ञान की रश्मियां निकलती हैं उसका वही नाम दे दिया गया है / मध्यगत अवधिज्ञान की रश्मियां शरीर के मध्यवर्ती चैतन्य केन्द्रों-मस्तक आदि से बाहर निकलती है। ___ सर्व-आत्म-प्रदेशों में आवरण विलय से विशुद्धि होने पर भी जो औदारिक शरीर की एक दिशा से देखता है, वह अंतगत अवधिज्ञान है / उसके तीन भेद हैं(क) पुरतः अंतगत-अवधिज्ञान औदारिक शरीर के आगे के भाग से ज्ञेय को प्रकाशित करता है। (ख) मार्गत: अंतगत-जो ज्ञान शरीर के पीछे के प्रदेश से ज्ञेय को प्रकाशित * करता है। (ग) पार्श्वत: अंतगत—जो अवधिज्ञान शरीर के एक पार्श्व अथवा दोनों - पार्श्व से पदार्थों को प्रकाशित करता है, वह पार्श्वतः अवधिज्ञान है। - मध्यगत अवधिज्ञान-जिस ज्ञान के द्वारा ज्ञाता चारों ओर से पदार्थों का ज्ञान करता है, वह मध्यगत अवधिज्ञान है / औदारिक शरीर के मध्यवर्ती स्पर्धकों की विशुद्धि सब आत्मप्रदेशों की विशुद्धि अथवा सब दिशाओं का ज्ञान होने के कारण यह मध्यगत अवधिज्ञान कहलाता है। एक दिशा में जाननेवाला अवधिज्ञान अंतगत अवधिज्ञान है / सब दिशाओं में