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________________ 354 / आर्हती-दृष्टि शरीर में अतीन्द्रियज्ञान के स्थान जैन-दर्शन के अनुसार आत्मा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द एवं . अनन्त शक्ति-संपन्न है / प्रत्येक आत्मा में अनन्त चतुष्ट्य विद्यमान है / आत्मा अपनी अनन्त ज्ञान शक्ति के द्वारा सार्वकालिक संपूर्ण ज्ञेय पदार्थ को सर्वांगीण रूप में जानने में समर्थ है किंतु संसारावस्था में आत्मा का यह स्वरूप ज्ञान-आवारक ज्ञानावरणीय कर्म से आवृत्त रहता है, अतः आत्मा का वह मूल रूप प्रकट नहीं हो पाता / आवृत्त दशा में आत्मा का जितना-जितना आवरण दूर हटता है वह उतना ही ज्ञेय जगत् के साथ संपर्क स्थापित कर सकती है। ___ जैन-परंपरा में मति आदि पांच ज्ञानों का स्वीकरण है। ये पांच ज्ञान प्रत्यक्ष एवं परोक्ष इन दो भागों में विभक्त हैं। मति श्रत ये दो ज्ञान परोक्ष है। मति एवं श्रत ज्ञान की अवस्था में आत्मा पदार्थ से सीधा साक्षात्कार नहीं कर सकती। पदार्थ ज्ञान में उसे आत्म भिन्न इंद्रिय, मन, आलोक आदि की अपेक्षा रहती है, अतः इन ज्ञानों को परोक्ष कहा गया है। इंद्रिय ज्ञान प्राप्ति के स्थान शरीर में प्रतिनियत हैं / इंद्रियां अपने नियत स्थान से ही ज्ञान प्राप्त करती हैं। आवरण के विरल अथवा संपूर्ण रूप से हट जाने से आत्मा को ज्ञेय साक्षात्कार में बाह्य साधनों की अपेक्षा नहीं रहती अर्थात् इस अवस्था में इंद्रिय, मन आदि पौद्गलिक साधनों का उपयोग नहीं होता है। अवधि, मनःपर्यव एवं केवल ज्ञान ये अतीन्द्रिय ज्ञान हैं / जैन परंपरा में इन्हें प्रत्यक्ष प्रमाण माना गया है।' अवधि एवं मनःपर्यव ये दो विकल/अपूर्ण प्रत्यक्ष है। तथा केवलज्ञान सकल/पूर्ण प्रत्यक्ष है।' अवधि मनः पर्यव ज्ञान की सीमारूपी द्रव्य है; जबकि केवलज्ञान की रूपी-अरूपी संपूर्ण द्रव्यों में निर्बाध गति है। जैन-दर्शन के अनुसार आत्मा शरीर प्रमाण है। यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि पारमार्थिक प्रत्यक्ष की ज्ञेय-प्रक्रिया में इंद्रियों की तो आवश्यकता नहीं है, किंतु आत्म-प्रदेश देहाधिष्ठित है। ऐसी अवस्था में शरीर के अंगोपांग उस ज्ञान-प्राप्ति के साधन बनते हैं या नहीं? इस प्रश्न का समाधान हमें नंदी-सूत्र एवं षटखण्डागम सूत्र में प्राप्त होता है। वहां पर अवधिज्ञान की चर्चा के प्रसंग में इस विषय से संदर्भित महत्त्वपूर्ण चर्चा हुई है, जो अन्य ग्रंथों में प्राप्त नहीं है।
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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