________________ प्रामाण्य : स्वतः या परतः / 353 एवं निराकृत होती रही है। जैन दृष्टि के अनुसार प्रामाण्य का नियामक तत्त्वप्रमेयाव्यभिचारित्व अर्थात् याथार्थ्य है / याथार्थ्य का अर्थ है—ज्ञान की तथ्य के साथ संगति ।ज्ञान अपने प्रति सत्य ही होता है। प्रमेय के साथ उसकी संगति निश्चित नहीं होती, इसलिए उसके दो रूप बनते हैं–तथ्य के साथ संगति हो वह सत्य ज्ञान और जिस ज्ञान की तथ्य के साथ विसंगति हो वह असत्य ज्ञान होता है। प्रामाण्य स्वतः होता है, या परतः , उसके नियामक तत्त्व क्या हैं ? उसकी अवगति के अन्य भी कोई साधन बन सकते हैं क्या? इत्यादि प्रश्न पुनः गहन विमर्श की अपेक्षा रखते हैं। शायद उस विमर्श से प्रामाण्य-अप्रामाण्य के सन्दर्भ में कुछ नए तथ्य उभरकर सामने आएं और दार्शनिक जगत् को विशेषित कर सके।