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________________ . शरीर में अतीन्द्रियज्ञान के स्थान / 357 के रूप में विख्यात प्रेक्षाध्यान में भी शरीर के कुछ विशिष्ट स्थानों को चैतन्यकेन्द्र के रूप में स्वीकृत किया है। उन केन्द्रों पर ध्यान करने से वृत्तियों के परिमार्जन के साथ-साथ अतीन्द्रिय ज्ञान शक्ति का विकास होता है / यह अनुभूत तथ्य/सत्य है। नंदी, पंचसंग्रह, गोम्मटसार आदि ग्रन्थों में अवधिज्ञान के उत्पत्ति-क्षेत्र की चर्चा की गई है। पंचसंग्रह एवं नंदी के अभिमतानुसार तीर्थंकर, नारकी एवं देवता को अवधिज्ञान सर्वांग से उत्पन्न होता है तथा मनुष्य एवं तिर्यंचों के शरीरवर्ती शंख, कमल, स्वस्तिक आदि करण चिन्हों से उत्पन्न होता है। जैसे शरीर में इन्द्रिय आदि का आकार नियत होता है वैसे शरीरवर्ती चिन्हों का आकार नियत नहीं हैं / एक जीव के शरीर के एक ही स्थान में अवधिज्ञान का करण होता है ऐसा कोई नियम नहीं है। किसी भी जीव के एक, दो, तीन, आदि क्षेत्र रूप शंख आदि शुभ स्थान संभव है। ये शुभ स्थान अवधिज्ञानी तिर्यश्च एवं मनुष्य के नाभि के ऊपर के भाग में होते हैं तथा विभंग अज्ञानी तिर्यञ्च एवं मनुष्य के नाभि से नीचे अधोभाग में गिरगिट आदि आकार वाले अशभ संस्थान होते हैं / 20 विभंगज्ञानियों के सम्यक्त्व आदि के फलस्वरूप अवधिज्ञान के उत्पन्न होने पर गिरगिट आदि अशुभ आकार मिटकर नाभि से ऊपर शंख आदि शुभ आकार हो जाते हैं। जो अवधिज्ञानी सम्यक्त्व के नाश से विभंगज्ञानी हो जाते हैं उनके शुभ संस्थान मिटकर अशुभ संस्थान हो जाते हैं। ____ अवधिज्ञान एवं मनःपर्यवज्ञान की उत्पत्ति के सम्बन्ध में गोम्मटसार के मन्तव्य से भी शरीरगत विशिष्ट अतीन्द्रिय केन्द्रों का बोध होता है / मनःपर्यवज्ञान की उत्पत्ति आत्मा के उन प्रदेशों से होती है जिनका सम्बन्ध द्रव्यमन से है / पंडित सुखलालजी के अनुसार द्रव्यमन का स्थान हृदय है। अतः हृदयभाग में स्थित आत्मप्रदेशों में ही मनःपर्यवज्ञान का क्षयोपशम है / परन्तु शंख आदि शुभ चिन्हों की उत्पति शरीर के सभी अंगों में हो सकती है। अतः अवधिज्ञान के क्षयोपशम की योग्यता शरीर में सर्वत्र है। _ साधना के द्वारा जो क्षेत्र अधिक सक्रिय हो जाता है उसके माध्यम से ही अतीन्द्रिय ज्ञान की रश्मियों का निर्गम होता है। शरीर के स्थान-विशेष अतीन्द्रियज्ञान के निर्गमन . के पथ बन जाते हैं। .. योग दर्शन में भी शरीर के विशिष्ट स्थानों पर एकाग्र होने से विशेष प्रकार का : ज्ञान उत्पन्न होता है, ऐसा उल्लेख है। वहां उल्लेख है कि सूर्य में संयम करने से
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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