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________________ समाज-व्यवस्था में अनेकान्त / 161 दिवाकर ने कहा - 'जावइया वयणपहा तावइया चेव होति णयवाया।' किन्तु इस सच्चाई को भी सामने रखना होगा कि विचार में सत्यांश अवश्य है किन्तु वही एकमात्र सत्य नहीं है / इस कसौटी पर चिन्तन को कसने पर विचार कभी संकीर्ण नहीं हो सकते / सम्भावनाओं का व्यापक द्वार खुला रहता है / द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं परिस्थिति आदि के अनुसार चिन्तन मुख्य, गौण भी होते रहे हैं / अनेकान्त स्वतः सिद्ध तत्त्व मीमांसा नहीं है। वह विचारतन्त्र का उपकरण है / दार्शनिक समस्याओं के निराकरण में अनेकान्त का प्रयोग बहुत हुआ है, किन्तु आज यह अपेक्षा महसूस की जा रही है कि क्या अनेकान्त जीवन दर्शन बन सकता है? क्या अनेकान्त के द्वारा समसामयिक समस्याओं का समाधान खोजा जा सकता है ? जो सिद्धान्त समसामयिक समस्याओं का समाधान नहीं दे सके उसकी प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। अनेकान्त आज भी प्रासंगिक है। अपेक्षा मात्र इतनी है कि व्यक्ति इसके प्रयोक्ता बनें। राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय, सामाजिक, पारिवारिक एवं वैयक्तिक आदि विभिन्न समस्याओं का समाधान अनेकान्त दृष्टि से प्राप्त हो सकता है। प्रस्तुत निबन्ध में समाज-व्यवस्था के सन्दर्भ में अनेकान्त की क्या भूमिका हो सकती है, उसका दिग्दर्शन प्राप्त हो सकेगा। _- समाज एवं समाज शास्त्र के क्षेत्र में अनेकान्त की भूमिका निर्धारण से पूर्व वर्तमान में प्रचलित समाज एवं समाज शास्त्र की अवधारणाओं पर विचार-विमर्श करणीय है। व्यक्ति पारिवारिक, धार्मिक, राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय आदि अनेक सम्बन्धों से जुड़ा होता है। सामाजिक सम्बन्धों का यही जाल जब अनेक रीतियों और नियमों से एक व्यवस्था में परिवर्तित हो जाता है तब इसी व्यवस्था को हम समाज कहते हैं। मेकाइवर एवं पेज ने समाज को परिभाषित करते हुए कहा है-'समाज रीतियों, कार्य-विधियों, अधिकार व पारस्परिक सहायता, अनेक समूहों तथा उनके विभाजनों, मानव व्यवहार के नियन्त्रणों तथा स्वतन्त्रताओं की व्यवस्था है। इस सदैव परिवर्तन होनेवाली तथा जटिल व्यवस्था को ही हम समाज कहते हैं / समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल है और सदैव परिवर्तित होता रहता है।' मेकाइवर ने समाज को सामाजिक सम्बन्धों का जाल कहते हुए उन आधारों को भी स्पष्ट किया है। उन आधारों के द्वारा ये सम्बन्ध व्यवस्थित समाज संरचना का निर्माण करते हैं। गिन्सबर्ग का कथन है-'समाज ऐसे व्यक्तियों का संग्रह है जो कुछ व्यवहारों अथवा सम्बन्धों की विधियों द्वारा संगठित , है तथा उन व्यक्तियों से भिन्न है.जो इस प्रकार के सम्बन्धों द्वारा बंधे हुए नहीं हैं अथवा
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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