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________________ 244 / आर्हती-दृष्टि जैन दर्शन जैन दर्शन के अनुसार आत्मा अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत आनंद एवं अनंत वीर्य से सम्पन्न है। किन्तु सांसारिक अवस्था में आत्मा के ये गुण तिरोहित रहते हैं। कर्म आत्मा के ज्ञान, दर्शन आदि को आवृत्त किए रहता है / अतः आत्मा का सांसारिक अवस्था में मूल स्वरूप दृष्टिगोचर नहीं होता है। ज्ञान आत्मा का स्वरूप है। ज्ञान जीव का विशेषण नहीं किन्तु स्वरूप है अतः जीव में यह सामर्थ्य है कि वह संसार के सम्पूर्ण ज्ञेय को अपरोक्षतः और यधार्थ रूप में जान सकता है। आत्मा सर्वज्ञ बन सकती है। कर्म के आवरण के कारण जीव को आंशिक ज्ञान होता है। जिस प्रकार कुछ लोग दर्शन ज्ञान की परिच्छिन्नता का कारण अविद्या को बताते हैं उसी प्रकार जैन दर्शन कर्म को बताता है / कर्मरूपी मेघ आत्मा रूपी सूर्य के प्रकाश को आवृत्त कर देते हैं जिससे आंशिक ज्ञान होता है। किन्तु कर्म ज्ञान रूप जीव के स्वभाव को नष्ट नहीं कर सकते / जीव का अक्षर के अनन्तवें भाग जितना ज्ञान हमेशा उद्घाटित रहता है। यदि ऐसा न हो तो जीव अजीव हो जाएगा। जैन दर्शन ज्ञान को नैयायिक वैशेषिक की तरह आत्मा का आगन्तुक धर्म नहीं मानता तथा सांख्य की तरह प्रकृतिजन्य भी नहीं मानता। ज्ञान तो आत्मा का सहजात गुण है। ज्ञान के अभाव में आत्मा की एवं आत्मा के अभाव में ज्ञान की कल्पना करना भी सम्भव नहीं है / ज्ञान और आत्मा का अभेद स्थापित करते हुए कहा गया विशिष्ट क्षयोपशम युक्त आत्मा जानती है, वही ज्ञान है / 'राजवार्तिक' में भी आत्मा को ही ज्ञान एवं दर्शन कहा गया है / एवंभूतनय की वक्तव्यता से ज्ञान, दर्शन रूप पर्याय में परिणत आत्मा ही ज्ञान और दर्शन है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आत्मा को ही उसकी पर्याय विशेष के आधार पर 'ज्ञान' कहा गया है। __ज्ञान की परिभाषा ज्ञेय तत्त्व के आधार पर भी प्राप्त होती है। जिसके द्वारा जाना जाता है अथवा जानने मात्र को ज्ञान कहा जाता है। ज्ञान ज्ञेय का प्रकाशक होता है। जो यथार्थ तत्त्व को प्रकाशित करता है अथवा सद्भाव पदार्थों का निश्चायक होता है। उसे ज्ञान कहा जाता है। जैन दर्शन में आत्म-मीमांसा, ज्ञान-मीमांसा, कर्म- मीमांसा परस्पर में अत्यन्त सम्बद्ध है। आत्मा अधिगम स्वभाववाली है।" निश्चयनय के अनुसार तो आत्मा का स्वभाव या स्वरूप केवलज्ञान ही है। सांसारिक अर्थात् कर्मयुक्त अवस्था में वह स्वभाव पूर्णरूपेण प्रकट नहीं होता है। अतः जैन साधना पद्धति का यही उद्देश्य है कि वह आत्मा पर आए हुए आवरणों को दूर करे ताकि वह अपने शुद्ध स्वरूप में उपस्थित हो सके।
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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