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________________ ज्ञानस्वरूप विमर्श | 245 आत्मा ज्ञान दर्शन स्वभाववाली है। ज्ञान की तरह दर्शन भी उसका स्वभाव है। ज्ञान एवं दर्शन दोनों की ज्ञापकता में क्या विशेषता है? इसका अवबोध ज्ञान एवं दर्शन के भेद को समझने से ही प्राप्त हो सकता है / जैन दर्शन के अनुसार वस्तु द्रव्य-पर्यायात्मक है।" द्रव्य सामान्य एवं पर्याय विशेष का द्योतक है। जब वस्तु का स्वरूप उभयात्मक है तो उसके ज्ञापक का स्वरूप भी उभयात्मक होना चाहिए। अतः 'सन्मति तर्क' में कहा गया सामान्यग्राही दर्शन एवं विशेषग्राही ज्ञान कहलाता है।" सामान्यग्राही दर्शन की प्रवृत्ति द्रव्यास्तिक नय की एवं विशेषग्राही ज्ञान की प्रवृत्ति पर्यायास्तिक दृष्टि की प्रेरक है। अतएव दर्शन द्रव्यास्तिक नय में एवं ज्ञान पर्यायास्तिक नय में माना जाता है / दर्शन और ज्ञान काल में ग्राह्य वस्तु में अधिक अन्तर नहीं पड़ता है। दर्शन काल में वस्तु का सामान्य धर्म प्रधान एवं विशेष गौण हो जाता है तथा ज्ञान काल में विशेष प्रधान एवं सामान्य गौण हो जाता है। आत्मा पर दर्शन एवं ज्ञान को घटित करके आचार्य सिद्धसेन ने इस तथ्य को उजागर किया है।“ साकार व अनाकार के भेद से उपयोग दो प्रकार का है। साकार उपयोग ज्ञान एवं अनाकार उपयोग.दर्शन है। ग्राह्य वस्तु को भेद के साथ ग्रहण करनेवाला ज्ञान तथा अभेद का ग्राह्य दर्शन कहलाता है।" जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान स्व-पर प्रकाशक है / स्व-पर प्रकाशता के अभाव में ज्ञान स्वयं की एवं वस्तु जगत् की व्यवस्था नहीं कर सकता। प्रमाण-मीमांसा के अन्तर्गत ज्ञान की स्व-पर प्रकाशकता की चर्चा की गई है / किन्तु उपाध्याय यशोविजय ने ज्ञान परिभाषा में इसका समावेश करके ज्ञान-मीमांसा के क्षेत्र में एक नया अध्याय जोड़ा है / ज्ञान को परिभाषित करते हुए उन्होंने 'ज्ञान बिन्दु प्रकरण' में कहा है-स्व-पर प्रकाशक ज्ञान आत्मा का असाधारण गुण है।६९ जैन सम्मत इस ज्ञान स्वरूप की दर्शनान्तरीय ज्ञान स्वरूप से तुलना करते समय चिन्तकों की मुख्य रूप से दो विचारधाराओं की ओर ध्यान आकृष्ट होता है। प्रथम विचारधारा सांख्य एवं वेदान्त तथा दूसरी विचारधारा बौद्ध, न्याय आदि दर्शनों में उपलब्ध होती है। प्रथम धारा के अनुसार ज्ञान गुण और चित्तशक्ति इन दोनों का आधार एक नहीं है। प्रथम धारा के अनुसार चेतना और ज्ञान दोनों भिन्न-भिन्न आधार वाले हैं। दूसरी धारा चैतन्य और ज्ञान का आधार भिन्न-भिन्न नहीं मानती / बौद्ध चित्त में, जिसे वह नाम भी कहता है, चैतन्य और ज्ञान का अस्तित्व मानता है। न्याय आदि दर्शन भी क्षणिक चित्त की बजाय स्थिर आत्मा में चैतन्य और ज्ञान का अस्तित्व मानते हैं। जैन दर्शन दूसरी
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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