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________________ जीव : जीवात्मा आत्मा की अवधारणा भारतीय दर्शन की आत्मा है / प्रत्येक भारतीय दर्शन ने निर्विवाद रूप से आत्मा के अस्तित्व को स्वीकृति दी है। आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में उनकी विचारधारा में मतभेद है। आत्मा के परिप्रेक्ष्य में वहां एक प्रश्न उभारा गया कि-आत्मा एक है या अनेक।। एकात्मवाद और नानात्मवाद की चर्चा के संदर्भ में सांख्य दर्शन अनेक आत्माओं के अस्तित्व को स्वीकृत करता है / नैयायिक एवं वैशेषिक आत्मा को सुख दुःख और ज्ञान की निष्पत्ति की अपेक्षा से एक तथा सुखादि की व्यवस्था से अनेक भी मानता है। वेदान्त आत्मा को एक मानता है तथा जैन दर्शन आत्मा के नानात्व में विश्वास. रखता है। जैन के अनुसार जीवात्मा ही परमात्मा बन जाता है / इससे वह वेदान्त के निकट पहँच जाता है किन्तु वेदान्त के जीवात्मा अनेक हैं, परमात्मा एक है ।जैन के अनुसार जितने जीवात्मा है, उतने परमात्मा हो सकते हैं। जैन अनेकात्मवादी है। एकात्मवादी वेदान्त शुद्धस्वरूप, व्यापक ब्रह्म को ही स्वीकार करता है, उसके अनुसार ब्रह्म सत्य है जगत् मिथ्या है, इन दार्शनिकों के सामने एक समस्या उत्पन्न होती है कि जब ब्रह्म शुद्ध स्वरूप है विकार रहित है तो हिंसादि कार्य कौन करता है ? इसका समाधान वे जीव और जीवात्मा इन दो शब्दों से प्रस्तुत करते हैं / उपनिषद् में दो शब्द प्रयुक्त हुए-जीव, समष्टिगत आत्मा अर्थात् ब्रह्म जीवात्मा अर्थात् प्रत्यगात्मा (Indivisual-soul) / भगवती सूत्र में भी यह चर्चा पूर्वपक्ष के रूप में उल्लिखित है 'प्राणातिपात आदि अठारह पापों में वर्तमान जीव अन्य है तथा जीवात्मा अन्य है, इसी प्रकार अन्य स्थितियों में भी जीव और जीवात्मा की पृथक् सत्ता को उन्होंने व्याख्यायित किया है। सूत्रकृताङ्ग सूत्र में इसी भाव को अभिव्यक्त करने वाला श्लोक है-एक ही पृथ्वी स्तूप, पर्वत, गुफा आदि नाना रूपों में दिखाई देता है, वैसे ही एक ब्रह्म ही नाना रूपों में प्रतिभासित हो रहा है। ब्रह्म-बिन्दु उपनिषद् में कहा गया—एक ही भूतात्मा सबमें व्यवस्थित है / वह एक होने पर भी जल में चन्द्र के प्रतिबिम्ब की भांति नाना रूपों में दिखाई देता है एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः / एकथा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् // .
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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