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________________ जीव : जीवात्मा / 57 कठोपनिषद् में भी जीव के एकत्व का प्रतिपादन है। जैसा कहा भी है कि अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव। एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा, रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च // ___ (कठोपनिषद्) भगवान महावीर ने कहा—जीव और जीवात्मा को पृथक् मानने की कल्पना सम्यक् नहीं है / जीव और जीवात्मा एक ही है। जो जीव है वही जीवात्मा है जो जीवात्मा है वही जीव है। जैन दृष्टि यह रही है कि एक आत्मा या समष्टि चेतना वास्तविक नहीं है और न वह दृश्य जगत् का उपादान भी है / अनन्त आत्माएं हैं और प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र इसलिए है कि उसका उपादान कोई दूसरा नहीं है। चेतना व्यक्तिगत है। प्रत्येक आत्मा का चैतन्य अपना-अपना है / एकात्मवादियों का कहना है कि ब्रह्म शुद्ध स्वरूप है, व्यापक है / वह हिंसा आदि क्रिया नहीं करता। हिंसा में (प्रवृत्ति और निवृत्ति शरीरावछिन्न जीवात्मा ही करती है, उनकी यह मान्यता तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतरती है / वे प्रतिबिम्बवाद के समर्थक हैं किन्तु उनके सामने एक समस्या उपस्थित होती है कि जो घटना बिम्ब में नहीं है वह प्रतिबिम्ब में कैसे घटित हो सकती है ? हिंसादि बिम्ब में नहीं है तो उसके प्रतिबिम्ब जीवात्मा में भी वे कैसे हो सकती है ? पानी में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब दिखलाई पड़ता है, आकाश स्थित चन्द्र यदि मेघाच्छादित नहीं है तो वह पानी में भी मेघाच्छादित नहीं दिखाई दे सकता। अंगुली हिलायेंगे तो वह दर्पण में हिलती हुई दिखाई देगी अन्यथा नहीं अतः जैन दर्शन नाना आत्माओं को ब्रह्म का प्रतिबिम्ब स्वीकार नहीं करता / जीव और जीवात्मा की पृथक् सत्ता उसको मान्य नहीं है। उसके अनुसार आत्माएं अनेक हैं तथा उन सबका स्वतंत्र अस्तित्व है। वे ब्रह्म जैसी किसी भी वस्तु का प्रतिबिम्ब नहीं हैं। ___ एकात्मवाद में क्रिया की सार्थकता नहीं होती इसलिए एकात्मवादी ज्ञानवादी होते हैं, क्रियावादी नहीं होते। एकात्मवाद में न कोई हिंस्य होता है और न कोई हिंसक / इसलिए वे हिंसा करते हुए भी हिंसा को नहीं मानते। ___ जैन दर्शन के अनुसार जीव अपनी प्रत्येक क्रिया का उत्तरदायी होता है / उसकी क्रिया स्वप्रेरित है। 'ठाणं' सूत्र में आगत ‘एगे आया' का वक्तव्य संग्रह नय की अपेक्षा शुद्ध चैतन्य की समानता के आधार पर दिया गया है / सब आत्माओं का स्वरूप एक जैसा होने पर भी उन सबका स्वतन्त्र अस्तित्व है / अतः जैन दर्शन के अनुसार मुक्तावस्था में भी सभी आत्माओं का स्वतन्त्र अस्तित्व रहता है। सभी आत्माओं का वैयक्तिक अस्तित्व है।
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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