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________________ अर्हत् की सर्वज्ञता सभी भारतीय दर्शनों में परस्पर एकवाक्यता है और वह एकवाक्यता है सब दर्शनों की अध्यात्म प्रधानता। जैनदर्शन के अनुसार आत्मा रत्नत्रय की आराधना के द्वारा परम प्रकर्ष स्थिति को प्राप्त कर सकती है। आत्मा स्वरूपत: ज्ञ स्वभाव वाली है। आवारक कर्मों के नाश हो जाने पर वह सम्पूर्ण ज्ञायक भाव को प्राप्त कर लेती है। अतएव जैन दर्शन ने सदा से ही त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती समस्त द्रव्यों की समस्त पर्यायों के प्रत्यक्ष दर्शन के अर्थ में सर्वज्ञता स्वीकार की है / मीमांसा दर्शन के अतिरिक्त सभी भारतीय दर्शनों ने सर्वज्ञता को स्वीकार किया है। जैन आगमों में सर्वज्ञता के प्रसंग से केवलज्ञान का उल्लेख है / जो समस्त द्रव्य तथा उनकी त्रिकालवी पर्यायों को जानता है वह केवलज्ञान है / आचार्य समन्तभद्र ने सर्वप्रथम आगममान्य सर्वज्ञता को युक्ति और तर्क द्वारा सिद्ध करने का प्रयत्न करके दर्शन शास्त्र में सर्वज्ञ की चर्चा का अवतरण किया। उन्होंने कहा कि आप्त वही हो सकता है जो निर्दोष और सर्वज्ञ हो तथा जिसके वचन युक्ति और आगम के विरुद्ध न हो / सर्वज्ञता के निषेध में मुखरित स्वर को प्रतिहत करते हुए उन्होंने कहा- . दोषावरणयोहानि - निशेषातिशायनात् / क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः / / दोष और आवरण का सर्वथा नाश सम्भव है क्योकि उनमें तारतम्य देखा जाता है अर्थात् क्लेश और अज्ञान व्यक्ति में भिन्न-भिन्न स्तर में पाये जाते हैं उनमें तारतम्य होता है और जहां तारतम्य होता है उसकी पराकाष्ठा भी अवश्य होती है अत: उस तारतम्य की जहाँ विश्रान्ति हो जाती है वह सर्वज्ञता है / आचार्य हेमचन्द्र ने भी सर्वज्ञ सिद्धि में यही युक्ति दी है। 'प्रज्ञातिशयविश्रान्त्यादिसिद्धेस्तत्सिद्धिः' पातञ्जल योग भाष्य में सर्वप्रथम यह युक्ति प्राप्त होती है "तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्।' जब आत्मा-दोष और आवरण से मुक्त हो जाती है तब वह सर्वज्ञ बन जाती है। जैसे अग्नि, मृत्पुटपाक आदि कारणों के द्वारा सोने के बहिरंग व अन्तरंग दोनों मलों का नाश हो जाता है वैसे ही कर्म मल के नाश होने से सर्वज्ञता प्राप्त हो जाती है। आत्मा का स्वभाव जानने का है जब प्रतिबन्धक कर्म दूर हो जाते है तब उसका ज्ञ स्वभाव प्रकट
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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