________________ 214 / आर्हती-दृष्टि गया है / अविद्या को परिभाषित करते हुए कहा गया— 'अनित्याशुचिदुः खानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या' अनित्य, अशुचि, दुःख एवं अनात्मा में क्रमशः नित्य, शुचि, सुख एवं आत्मबुद्धि करना अविद्या है। सांख्य एवं योग ने ज्ञान को ही मुक्ति का कारण माना है / पुरुष का प्रकृति से असम्बन्ध ही मोक्ष है / वस्तुतः इस दर्शन के अनुसार बन्ध और मोक्ष पुरुष के नहीं होते अपितु प्रकृति के ही होते हैं—'संसरति बध्यते मुच्यते नानाश्रया प्रकृतिः।' योग दर्शन के मन्तव्य के अनुसार अविद्या आदि पांच क्लेशों के कारण क्लिष्ट वृत्ति चित्त व्यापार की उत्पत्ति होती है और उससे धर्म, अधर्म रूप संस्कार उत्पन्न होते हैं। योगमान्य क्लेश कषाय आश्रव स्थानीय एवं चित्तवृत्ति योग आश्रव स्थानीय है। विवेक ख्याति से क्लेशों का निरोध सम्भव है / क्लेशावरण दूर होने पर मुक्ति हो जाती है। न्याय-वैशेषिक दर्शन न्याय वैशेषिक दर्शन द्वैतवादी है। वे आत्मा और परमाणु का पृथक् अस्तित्व स्वीकार करते हैं / अविद्या के कारण ही जीव शरीर को आत्मा समझने लगता है। नैयायिक राग-द्वेष और मोह रूप तीन दोषों को स्वीकार करते हैं / ये तीनों दोष नैयायिक दर्शन में जैनमान्य आश्रव स्थानीय है। इन दोषों से प्रेरणा प्राप्त करके जीव के मन, वचन एवं काय की प्रवृत्ति होती है। उस प्रवृत्ति से धर्म; अधर्म की उत्पत्ति होती है। इनको संस्कार भी कहा जाता है। तत्त्वज्ञान से बन्ध का नाश होता है। मिथ्याज्ञान, दोष, प्रवृत्ति आदि के कारण ही संसार प्रवर्तित होता है-'मिथ्याज्ञानादयो दुःखान्तधर्माविच्छेदेनैव प्रवर्तमानः संसार:' और इनका नाश होने से मुक्ति हो जाती है। न्यायसूत्र में मुक्ति की प्रक्रिया का उल्लेख करते हुए कहा गया'दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदन्तरापायादपवर्गः'।. सर्वप्रथम मिथ्याज्ञान का नाश होता है तत्पश्चात् क्रमशः दोष, प्रवृत्ति, जन्म एवं दुःख का नाश होने से अपवर्ग की प्राप्ति होती है। राग, द्वेष एवं मोह ये तीन कर्म बन्ध के हेतु बनते हैं। इनके निरोध से अपवर्ग:सम्मुख हो जाता है। बौद्ध दर्शन बौद्ध दर्शन अनात्मवादी है / इस दर्शन के अनुसार शाश्वत, नित्य स्वरूपवाला आत्मा नाम का कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है / आत्मा जैसी किसी स्वतन्त्र, शाश्वत वस्तु का अस्तित्व नहीं होने पर भी शरीर आदि अनात्म द्रव्यों में आत्म-बुद्धि होना ही बन्धन