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________________ विभिन्न भारतीय दर्शनों में आश्रव / 215 का हेतु है तथा इसे ही अविद्या या मिथ्याज्ञान कहा जाता है / बौद्ध दर्शन के अनुसार नाम और रूप के संसर्ग से अनादिकालीन संसार-चक्र चल रहा है। संसार-चक्र का कारण लोभ, राग, द्वेष आदि हैं / ये लोभ आदि ही कर्मबन्धन के हेतु हैं। कर्मबन्ध के हेतु के रूप में जैसे जैन परम्परा में आश्रव शब्द का प्रयोग हुआ है वैसे ही बौद्ध परम्परा में पाली भाषा में 'आसव' शब्द का प्रयोग हुआ है। ‘आसव' को व्याख्यायित करते हुए कहा गया कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है फिर भी उसका स्थिर वस्तु के रूप में स्वीकार अनादि दोष के कारण होता है और वही दोष अविद्या है। यह अविद्या आसव के निमित्त से प्रकट होती है / आसव चार प्रकार का है 1. कामासव–शब्द आदि विषयों को प्राप्त करने की इच्छा। 2. भवासक-पंच स्कन्ध अर्थात् सचेतन देह में जीने की इच्छा। 3. दृष्यासव–बौद्ध दृष्टि से विपरीत दृष्टि सेवन का वेग। 4. अविद्यासव–अस्थिर अथवा अनित्य पदार्थों में स्थिरता या नित्यता की बुद्धि / दुःख में सुख, अनात्म में आत्मबुद्धि आदि। . अगुत्तर निकाय में आश्रव के कामाश्रव, भवाश्रव एवं अविद्याश्रव ये तीन भेद किये गये हैं। अविद्या को सबने कर्मबन्ध का मूल हेतु माना है। जैन दर्शन ___जैन दर्शन के अनुसार कर्म आकर्षण के हेतुभूत आत्म परिणाम को आश्रव कहा जाता है / आश्रव ही संसार का मूल कारण है, जैसा कि हेमचन्द्राचार्य ने कहा है'आश्रवो भवहेतुः स्यात्' / जैन आगमों में अनेक स्थलों पर कर्मबन्ध के हेतुओं की चर्चा है। भगवती में प्रमाद और योग को बन्ध का हेतु कहा गया—'जीवे णं कंखामोहणियकम्मं कज्जइ पमाएणं जोगेणं'स्थानांग में भी राग एवं द्वेष को कर्मबन्ध का हेतु कहा है। पत्रवणा में भी इसकी विस्तार से चर्चा है। उत्तराध्ययन में राग एवं द्वेष को कर्म का बीज कहा गया है—'रागो य दोसो वि य कम्मबीअं' तत्त्वार्थ-सूत्र में कर्मबन्ध के पांच हेतुओं का उल्लेख है___ 'मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोग बन्धहेतवः' / इन बन्ध हेतुओं को ही जैन दर्शन में आश्रव कहा गया है। जैन दर्शन में मिथ्यात्व आश्रव से प्रसिद्ध तत्त्व जैनेतर दर्शनों में अविद्या, मिथ्याज्ञान आदि नामों से प्रसिद्ध है / इन आश्रवों के द्वारा ही कर्म परमाणुओं का आकर्षण होकर आत्मा से वे चिपक जाते हैं। ___ जैन साहित्य में आश्रव पर विस्तार से चर्चा उपलब्ध है। पांचों ही आश्रवों का संक्षेप में वर्णन यहां काम्य है।
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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