________________ 216 / आहती-दृष्टि .. 1. मिथ्यात्व—'अतत्त्वे तत्त्वश्रद्धा मिथ्यात्वम्' दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से अतत्त्व (अयथार्थ) में तत्त्व की प्रतीति मिथ्यात्व है। आभिग्रहिक, अनाभिग्रहिक, आभिनिवेशिक, अनाभोगिक एवं सांशयिक के भेद से मिथ्यात्व को पांच प्रकार का निर्दिष्ट किया है / मिथ्यात्व ही मूल आश्रव है / इसका निरोध होने से ही अन्य आश्रवों का निरोध सम्भव है। अन्य दर्शनों में मिथ्यात्व को ही अविद्या, अज्ञान, मिथ्याज्ञान आदि कहा गया है। 2. अविरति-'अप्रत्याख्यानमविरतिः' अप्रत्याख्यान एवं प्रत्याख्यान मोह के उदय से आत्मा का हिंसा आदि में अत्यागरूप जो अध्यवसाय होता है, उसे अविरति कहते हैं। 3. प्रमाद–'अनुत्साहः प्रमादः' अरति आदि मोह के उदय से अध्यात्म के प्रति जो अनुत्साह होता है, उसका नाम प्रमाद है। 4. कषाय—'रागद्वेषात्मकोत्तापः कषायः' आत्मा की रागद्वेषात्मक उत्पत्तता कषाय आश्रव है / अनन्तानुबन्धी आदि के भेद-प्रभेद से कषाय के अनेक प्रकार हैं। 5. योग–'काय-वाङ्मनो व्यापारो योगः' वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से तथा शरीर नाम कर्म के उदय से निष्पन्न तथा शरीर, भाषा एवं मन की वर्गणा के संयोग से होनेवाले शरीर, वचन एवं मन की प्रवृत्ति रूप आत्मा के परिणाम को योग कहते हैं। शुभ एवं अशुभ के भेद से योग दो प्रकार का है। योग की शुभता एवं अशुभता का कारण मोहकर्म का संयोग-वियोग है। जैसा कि आचार्य भिक्षु ने नवपदार्थ में कहा है—'उजला नै मैला कह्या जोग, मोहकरम संजोग विजोग'। सभी भारतीय दर्शनों में मुक्ति की अवधारणा है / मुक्ति की अवधारणा के साथ बन्ध की स्वीकृति स्वत: फलित है / बन्ध है तो उसका कारण भी है जिसे आश्रव कहा जाता है / बन्धन मुक्ति का उपाय संवर एवं निर्जरा है, इन संवर निर्जरात्मक हेतु के द्वारा आत्मा की आत्यन्तिक एवं ऐकान्तिक बन्धन मुक्ति सम्भव है। '