________________ 298 / आर्हती-दृष्टि 2. ऋजुवचनगत-जो दूसरे के द्वारा स्फुट रूप से कहे गए वचन को सामान्य रूप से जानता है वह ऋजुवचनगत मनःपर्यवज्ञान है। प्रश्न होता है कि ऋजुवचनगत अर्थ को जानना ऋजुमति मनःपर्यव कैसे? इसका समाधान प्रस्तुत करते हुए आचार्य वीरसेन ने कहा है कि ऋजुवचन की प्रवृत्ति ऋजुमन के बिना नहीं हो सकती, अतः ऋजुवचनगत अर्थ के आधार पर ऋजुमन को जानने की क्रिया ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान की सीमा में आ जाती है। 3. ऋजुकायगत-दूसरे की स्पष्ट कायिक चेष्टा के आधार पर सामान्य रूप से उसके मन को जानना ऋजुकायगत ज्ञान है / कायिक चेष्टा मननपूर्वक होती है, अतः उसके द्वारा वार्तमानिक मनोगत भावों का ज्ञान ऋजमति मनःपर्यवज्ञान है। विपुलमति मनःपर्यवज्ञान मनःपर्यवज्ञानावरणीय के विशिष्ट क्षयोपशम से योगी परकीय मनोगत भावों को विशेष रूप से जान लेता है, वह प्रत्यक्ष ज्ञान विपुलमति मनःपर्यवज्ञान कहलाता नन्दीचूर्णी के अनुसार विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी चिन्तन में परिणत पदार्थों को बहुत विशेषों (पर्यायों) 2 युक्त जानता है। जैसे किसी ने घट का चिन्तन किया तो विपुलमति मनःपर्यवज्ञान केवल घट मात्र ही नहीं जानेगा उसके देश, काल आदि अनेक पर्यायों को भी जान लेगा। विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी दूसरे के द्वारा ग्रहण किए हुए मनोद्रव्य के आधार पर जान लेता है कि इसने जिस घट का चिन्तन किया वह स्वर्ण निर्मित है, पाटलिपत्र में अभी-अभी बना है, बड़ा है, अभी फल से ढककर कमरे में रखा हुआ है, इस प्रकार उसका ज्ञान ऋजुमति की अपेक्षा बह विशेषग्राही होता। सिद्धसेनगणि ने ऋजुमति को सामान्यग्राही एवं विपुलमति को विशेषग्राही बतलाया है। उन्होंने सामान्य का प्रयोग स्तोक के अर्थ में किया है। किसी व्यक्ति ने घट का चिन्तन किया ऋजुमति उसको जान लेता है किन्तु घट की अनेक पर्यायों का चिन्तन किया उन सब पर्यायों को वह नहीं जानता। विपुलमति घट के विषय में चिन्त्यमान सैकड़ों पर्यायों को जान लेता है। विपुलमति मनःपर्यवज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म का विशिष्ट क्षयोपशम है, जिसके द्वारा ज्ञाता अपने या दूसरे के व्यक्त मन से चिन्तित अथवा अचिन्तित चिन्ता, मरण, सुख, दुःख आदि भावों को जान लेता है। धवला में विपुल का अर्थ विस्तीर्ण किया