________________ मन : पर्यवज्ञान / 297 चिन्तनधारा का ज्ञान ही मनःपर्यवज्ञान है। ___ मनःपर्यवज्ञान संज्ञी पञ्चेन्द्रिय के मनश्चितित अर्थ को प्रकट करता है। इसका सम्बन्ध मनुष्य-क्षेत्र से है यह गुण प्रत्ययिक है / यह चरित्रवान् संयमी के ही होता है / मनःपर्यवज्ञान के भेद नन्दीसूत्र में मनःपर्यवज्ञान के दो प्रकार बतलाए गए हैं—ऋजुमति और विपुलमति मनःपर्यवज्ञान / मनःपर्यवज्ञान के इन दो भेदों की अवधारणा दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों जैन परम्पराओं में है। ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान दूसरे के मनोगत भावों को सामान्य रूप से जानता है। नन्दीचूर्णि के अनुसार ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान मन के पर्यायों को जानता है किन्तु अत्यधिक विशेषण से विशिष्ट पर्यायों को नहीं जानता है। नन्दी चूर्णिकार ने ऋजु का.अर्थ सामान्य किया है / ऋजुमति ज्ञान के सन्दर्भ में सामान्य का अर्थ अपेक्षाकृत कम पर्यायों; धर्मों या आकारों से युक्त ज्ञान है। जैसे कोई व्यक्ति घट का चिन्तन करता है तो ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान यह तो जान ही लेता है कि अमुक व्यक्ति घट का चिन्तन कर रहा है पर यह नहीं जान पाता है कि इस व्यक्ति के द्वारा चिन्तित घट का आकार कितना है, यह किस द्रव्य से बना हुआ है, शीतकाल में बना हुआ है या ग्रीष्मकाल में। इसमें अन्य क्या-क्या विशेषताएं हैं ।अर्थात् बहुत विशेषण विशिष्टता का अभाव ही यहां सामान्य अथवा ऋजु शब्द का अभिधेयार्थ है। धवला में ऋजुमति की व्याख्या करते हुए बताया गया है कि यथार्थ मन, यथार्थ वचन और यथार्थ कायिक चेष्टागत अर्थ को विषय बनानेवाली मति ऋजुमति है। ऋजु का एक अर्थ किया गया है-व्यक्त / संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित मन व्यक्त मन कहलाता है / व्यक्त मन का ज्ञान ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान है। ऋजुमति चिन्तित अर्थ को ही जानता है / अचिन्तित और अर्धचिन्तित अर्थ अव्यक्त होने से उसके विषय नहीं बनते हैं। श्वेताम्बर साहित्य में ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान के उपभेदों की चर्चा उपलब्ध नहीं है। दिगम्बर साहित्य में ऋजमति मनःपर्यवज्ञान के तीन भेद किए गए हैं. 1. ऋजुमनोगत-जो दूसरे के द्वारा स्फुट रूप से चिन्तन किए गए अर्थ को सामान्य रूप से जानता है।