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________________ 268 / आर्हती-दृष्टि है। वह व्यंजनावग्रह है / यह अव्यक्त परिच्छेद है। जिसके द्वारा अर्थ प्रकट होता है। जैसे दीपक के द्वारा घट वह व्यंजन है तथा उपकरण इन्द्रिय एवं शब्द आदि रूप परिणत द्रव्य के सम्बन्ध को भी व्यंजन कहा जाता है। नन्दी सूत्र में मल्लक (सिकोरा) एवं सुप्त व्यक्ति के दृष्टान्त से व्यंजनावग्रह है एवं अर्थावग्रह को स्पष्ट किया गया है। अर्थावग्रह एक सामयिक है। व्यंजनाग्रह असंख्य सामयिक है / "व्यंजनावग्रह काल में भी ज्ञान होता है किन्तु वह सूक्ष्म और अव्यक्त होने से उपलब्ध नहीं होता। विशेषावश्यक भाष्य में व्यंजनावग्रह के स्वरूप का विस्तार से वर्णन करने के पश्चात् अर्थावग्रह का विवेचन किया गया है। अर्थावग्रह को नैश्चयिक एवं व्यावहारिक बताया गया है तथा उसके विषय, समय आदि का भी विस्तृत विवेचन हुआ है। ईहा ___ अवग्रह के द्वारा ज्ञात अर्थ को विशेष रूप से जानने की इच्छा ईहा है। अवग्रह के बाद संशय ज्ञान होता है। यह क्या है—शब्द या स्पर्श? इसके अनन्तर ही जो सत् अर्थ का साधक वितर्क उठता है यह श्रोत्र का विषय है ‘इसलिए शब्द होना चाहिए' 'शब्देन भाव्यम्' / अवग्रह के द्वारा ज्ञात पदार्थ के स्वरूप का निश्चय करने के लिए विमर्श करनेवाला ज्ञान क्रम ईहा है।" इसकी विमर्श पद्धति अन्वय-व्यतिरेक पूर्वक होती है। ज्ञात वस्तु के प्रतिकूल तथ्यों का निरसन और अनुकूल तथ्यों का संकलन कर ईहा उसके स्वरूप निर्णय की परम्परा को आगे बढ़ाती है। अवग्रह में अर्थ के सामान्य रूप का ग्रहण होता है और ईहा में उसके विशेष धर्मों का पर्यालोचन शुरू हो जाता है। आभोगणता, मार्गणता, गवेषणता, चिन्ता एवं विमर्श ये ईहा के एकार्थक नन्दी में उपलब्ध हैं।" उमास्वाति ने ईहा, ऊह, तर्क, परीक्षा, विचारणा और जिज्ञासा को एकार्थक माना है। ईहा का कालमान अन्तर्मुहूर्त है।" अवाय ईहित अर्थ का विशेष निर्णय अवाय है। अवाय की स्थिति में ज्ञान निणींत हो जाता है / मधुर स्निग्ध आदि गुणों से युक्त होने के कारण यह शंख का ही शब्द है, शृंग का शब्द नहीं है / इस प्रकार का विशेष ज्ञान अवाय है / 'ववसायं च अवार्य' यह नियुक्ति का कथन है / नन्दी में आवर्तनता, प्रत्यावर्तनता, अवाय, बुद्धि, विज्ञान ये अवाय के एकार्थक बताये हैं।" तत्त्वार्थ भाष्य में अवाय के लिए अपगम, अपनोद, अपव्याध, अपेत, अपगत, अपविद्ध, अपनुत, शब्दों का प्रयोग हुआ है।" अवाय के लिए अपाय शब्द भी विशेष प्रचलित है / अपाय निषेधात्मक है, अवाय विधेयात्मक
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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