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________________ मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान / 267 ही प्रतिपक्षी अल्प-अल्पविध आदि छह और भेद होने से बारह हो जाते हैं / अट्ठाईस को बारह से गुणित करने पर मतिज्ञान के 336 (तीन सौ छत्तीस) भेद हो जाते हैं।" नन्दीकार मतिज्ञान के श्रुतनिश्रित एवं अश्रुतनिश्रित दो भेद करते हैं / फिर भी मतिज्ञान को अट्ठाईस भेदवाला ही बताया है। इससे यह प्रकट होता है कि औत्पत्तिकी आदि चार बुद्धियों को मति में समाविष्ट करने के लिए उसके दो भेद तो किये परन्तु प्राचीन परम्परा में उसका स्थान न होने से मति भी 28 भेदवाला ही स्वीकार किया। अन्यथा चार बुद्धियों को मिलाने से तो मति के 32 भेद हो जाते / मति के 28 भेदवाली परम्परा सर्वमान्य है, किन्तु 28 भेदों की स्वरूप रचना में दो परम्पराएं मिलती हैं। एक परम्परा अवग्रह अभेदवादियों की है / इसमें व्यंजनावग्रह की अर्थावग्रह से भिन्न गणना नहीं होती, इसलिए श्रुतनिश्रित मति के 24 भेद और अश्रुत निश्रित के ४–इस प्रकार मति के 28 भेद हो जाते हैं। दूसरी परम्परा जिन भद्रगणि क्षमाश्रमण की है। इसके अनुसार अवग्रह आदि चतुष्ट्य अश्रुतनिश्रित और श्रुतनिश्रित मति के सामान्य धर्म हैं इसलिए भेद गणना में दोनों का समाहार हो जाता है। मतिज्ञान के 28 भेद सिद्ध हो जाते हैं। अवग्रहादि चतुष्ट्य का विश्लेषण अवग्रह लौकिक प्रत्यक्ष, आत्म प्रत्यक्ष की भांति समर्थ प्रत्यक्ष नहीं होता। इसलिए इसमें क्रमिक ज्ञान होता है / इस क्रम में सर्वप्रथम अवग्रह आता है / इन्द्रिय और पदार्थ का योग होने पर दर्शन के पश्चात होनेवाला सामान्य ग्रहण अवग्रह कहलाता है।" इन्द्रिय एवं अर्थ का उचित देश आदि में अवस्थानात्मक सम्बन्ध होने पर विशेष के उल्लेख से रहित सत्ता मात्र का ज्ञान दर्शन कहलाता है / दर्शन के पश्चात् अनिर्देश्य सामान्य वस्तु का ग्रहण अवग्रह कहलाता है। नियुक्तिकार ने रूप आदि पदार्थ के ग्रहण को अवग्रह कहा है। भाष्यकार अवग्रह को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जिसमें सम्पूर्ण विशेष अन्तर्निहित है तथा जिसका किसी प्रकार से निर्देश नहीं किया जा सकता, वह सामान्यग्राही अवग्रह कहलाता है। नन्दी सूत्र में अवग्रह के पर्यायवाची का उल्लेख है। अवग्रहणता, उपधारणता, श्रवणता, अवलम्बनता तथा मेधा ये नन्दी में आगत अवग्रह के पर्यायवाची है।"तत्त्वार्थ सूत्र में अवग्रह, ग्रह, ग्रहण, आलोचन एवं अवधारण ये अवग्रह के एकार्थक हैं / " अवग्रह दो प्रकार का है—व्यंजनावग्रह एवं अर्थावग्रह।" अर्थावग्रह का पूर्ववर्ती ज्ञान व्यापार, जो इन्द्रिय और अर्थ के संयोग से उत्पन्न होता
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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