SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 26 / आर्हती-दृष्टि जीव और पुद्गल में आपस में मिलने की प्रायोग्यता को स्नेह कहा गया है / आश्रव जीव का स्नेह है तथा आकर्षित होने की अर्हता पुद्गल का स्नेह है / जीव में धन शक्ति है तथा पुद्गल में ऋण शक्ति है अतः वे परस्पर मिल जाते हैं। भगवती में भंगवान महावीर ने एक उदाहरण के द्वारा जीव और पदंगल के परस्पर सम्बन्ध को स्पष्ट किया है। तालाब में पानी है / उसमें सैंकड़ों छिद्रवाली नौका है। जिस प्रकार वह नौका पानी से भर जाती है वैसे ही जीव के छिद्र आश्रव हैं, कर्म रूपी पानी उन आश्रव रूपी छिद्रों से भर जाता है। राग-द्वेष से युक्त आत्मा के कर्म बंधते हैं। स्नेहाभ्यक्तशरीरस्य रेणुना श्लिष्यते यथा गात्रम्। रागद्वेषक्लिन्नस्य कर्मबन्धो भवत्येव / राग-द्वेष से युक्त आत्मा के कर्मों का बन्ध होता है। प्रश्न फिर भी बना रहता है कि जीव और पुद्गल के आपसी सम्बन्ध का सेतु क्या है ? इनका परस्पर सम्बन्ध कैसे होता है ? दोनों परस्पर विरोधी स्वभाववाले हैं। चेतन अमूर्त और जड़ मूर्त है। क्या इनका सम्बन्ध करवानेवाला कोई तीसरा पदार्थ है? जैसा कि न्याय-वैशेषिक ने द्रव्य और गुण में परस्पर सम्बन्ध करवाने के लिए तीसरे समवाय पदार्थ को स्वीकृति दी।जड़-चेतन का सम्बन्ध करवाने के लिए उन्होंने ईश्वर को स्वीकार किया है। जैन-दर्शन ने जगत् निर्माण में किसी भी ईश्वरीय शक्ति को स्वीकृति नहीं दी है। उन्होंने इस समस्या को समाहित करने का यौक्तिक प्रयत्न किया। जीव और पुद्गल का भौतिक सम्बन्ध है। जैन ने जीवों को दो भागों में विभक्त किया-सिद्ध एवं संसारी / सिद्धात्मा सर्वथा अमूर्त होती है अतः उसके साथ कर्म पुद्गलों का सम्बन्ध नहीं हो सकता। आत्मा स्वरूपतः अमूर्त है किन्तु संसारावस्था में वह कथंचित् मूर्त भी है / संसार दशा में जीव और पुद्गल का कथंचिद् सादृश्य होता है। अतः उनका * सम्बन्ध होना असम्भव नहीं है / संसारी आत्मा सूक्ष्म और स्थूल-इन दो प्रकार के शरीरों से आवेष्टित है / एक जन्म से दूसरे जन्म में जाते समय स्थूल शरीर छूट जाता है, सूक्ष्म शरीर नहीं छूटता। सूक्ष्म शरीरधारी जीव ही दूसरा शरीर धारण करते हैं, इसलिए अमूर्त जीव मूर्त शरीर में प्रवेश कैसे करता है, यह प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता है क्योंकि संसारी आत्मा कथंचिद् मूर्त है / भगवती सूत्र में इस प्रश्न को सुलझाया गया है। वहां कहा गया है कि अरूप सरूप नहीं हो सकता / कर्म, राग, मोह, लेश्या एवं शरीर के कारण जीव मूर्त भी है। शरीर सम्बन्ध के कारण जीव पांच वर्ण, गंध आदि से भी युक्त है / जीव स्वरूप से अमूर्त है किन्तु बद्धावस्था की अपेक्षा मूर्त भी
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy