________________ . जीव और शरीर के सम्बन्ध सेतु / 27 है अतः उसका पुद्गल के साथ सम्बन्ध होता है / सेन्ट्रिपिटल आकर्षण पुद्गल का है तथा सेन्ट्रिफ्यूगल आकर्षण जीव का है / पुद्गल जीव को आकर्षित करते हैं तथा जीव भागने की कोशिश करता है। पुरा भाग नहीं सकता अतः संसार में परिभ्रमण करता है। जब भाग जाता है तब मुक्त बन जाता है / जीव और पुद्गल में भोग्य-भोक्त सम्बन्ध है / जीव भोक्ता है, पुद्गल भोग्य है। जीव और शरीर जीव और शरीर का परस्पर भेदाभेद है। यह भेदाभेद अनेकान्त दृष्टि के द्वारा ही समझा जा सकता है / गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा आया भंते! काये? अण्णे काये? गोयमा ! आया वि काये, अण्णे वि काये।' इत्यादि / आत्मा और शरीर में सर्वथा अभेद नहीं है, यदि सर्वथा अभेद होता तो ये दोनों एक ही हो जाते / सर्वथा भेद भी नहीं है। सर्वथा भेद होने से परस्पर कभी भी नहीं मिल सकते थे। अतः अपने विशेष गुणों के कारण इनमें परस्पर भेद भी है और सामान्य गुणों के कारण अभेद भी है / भगवान् महावीर ने आत्मा को शरीर से भिन्न और अभिन्न दोनों कहा है। ऐसी स्थिति में दो प्रश्न हमारे सामने उपस्थित होते हैं यदि शरीर आत्मा से अभिन्न है तो उसे आत्मा की तरह अरूपी और सचेतन भी होना चाहिए। जैन दर्शन में समाधान प्राप्त है कि शरीर रूपी भी है और अरूपी भी है। सचेतन भी है और अचेतन भी है। ___आत्मा और शरीर में अत्यन्त भेद माना जाए तो कायकृत कर्मों का फल आत्मा को नहीं मिलना चाहिए। अत्यन्त अभिन्न मानें तो शरीर दाह के समय आत्मा भी नष्ट हो जाएगी जिससे परलोक सम्भव नहीं है। इन्हीं दोषों को देखकर भगवान् बुद्ध ने कह दिया कि भेद और अभेद ये दोनों पक्ष उचित नहीं हैं / जबकि भगवान् महावीर ने दोनों विरोधिवादों का समन्वय स्थापित किया है / एकान्त भेद और अभेद मानने पर जो दोष आते हैं वे उभयवाद की स्वीकृति में विलीन हो जाते हैं / जीव और शरीर का कथंचिद् भेदाभेद है। शरीर नाश के बाद भी आत्मा रहती है तथा सिद्धावस्था में अशरीर आत्मा भी होती है। अतः आत्मा और शरीर परस्पर भिन्न हैं / संसारावस्था में शरीर और आत्मा का क्षीर-नीरवत् या अग्नि-लोहपिण्डवत् तादात्म्य होता है, अतएव काय से किसी वस्तु का स्पर्श होने पर आत्मा में संवेदन होता है। कायक्त कर्म का भोग भी आत्मा करती है, अतः शरीर और आत्मा अभिन्न हैं। भगवती सूत्र में जीव