________________ 28 / आर्हती-दृष्टि के गति, इन्द्रिय आदि दस भेद गिनाये हैं। यदि जीव और काय का अभेद न माना जाए तो इन परिणामों को जीव परिणाम के रूप में नहीं गिनाया जा सकता था। उसी प्रकार जीव को सवर्ण, सगन्ध आदि माना है,। वह भी जीव शरीर के अभेद हेतु से ही माना है। ___भगवती सूत्र में जीव को अरूपी, अकर्म कहा गया। इन व्याख्याओं से जीव और शरीर की भिन्नता की सूचना ही प्राप्त होती है। इस प्रकार सापेक्ष दृष्टि से जीव और शरीर का भेदाभेद सिद्ध हो जाता है / शरीर औदारिक शरीर की अपेक्षा रूपी है तथा कार्मण की अपेक्षा अरूपी भी है। आत्मा-शरीर के सम्बन्ध के सन्दर्भ में आचार्य कुन्दकुन्द के विचार भिन्न प्रकार के हैं। वे निश्चयनय के अनुसार आत्मा को शुद्ध मानते हैं। उसके किसी प्रकार का बन्ध है ही नहीं / व्यवहारनय से वह बंधी हुई है। व्यवहार नय असद्भूत है। जीवो चरितणाणदसणट्ठिउ यं ससमयं जाण। पुग्गलकम्मपदेसो च जाण परसमय // कुन्दकुन्द का झुकाव वेदान्त, सांख्य दर्शन की तरफ प्रतीत होता है। उनका कहना है कि आत्मा यदि स्वरूपतः बंधी हुई है तो वह कभी भी मुक्त नहीं हो सकती। जीव और पुद्गल का सम्बन्ध अनादि है। सभी भारतीय दार्शनिकों ने ऐसा स्वीकार किया है। न्याय-वैशेषिक दर्शन ने जगत् को ईश्वरकृत् मानकर भी संसार को अनादि माना है तथा चेतन एवं शरीर के सम्बन्ध को भी अनादि स्वीकार किया है। 'अनादिचेतनस्य शरीरयोगः अनादिश्च रागानुबन्धः' कर्म सिद्धान्त के अनुसार आत्मा और अनात्मा के सम्बन्ध को अनादि मानना अनिवार्य है। यदि ऐसा न माना जाए तो कर्म सिद्धान्त की मान्यता का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। यही कारण है कि उपनिषदों के टीकाकारों में शंकर को ब्रह्म और माया के सम्बन्ध को अनादि मानना पड़ा। भास्कराचार्य ने सत्य रूप उपाधि का ब्रह्म के साथ अनादि सम्बन्ध माना है। रामानुज, निम्बार्क एवं मध्व ने अविद्या को अनादि माना है / वल्लभ के अनुसार जिस प्रकार ब्रह्म अनादि है वैसे ही उसका कार्य भी अनादि है। अतः जीव तथा अविद्या का सम्बन्ध भी अनादि है। सांख्य मत में प्रकृति एवं पुरुष का संयोग, बौद्धमत में नाम और रूप के सम्बन्ध को अनादि माना है। जैन दर्शन भी जीव और कर्म के संयोग को अनादि स्वीकार करता है / जैसे मुर्गी और अण्डे में, बीज और वृक्ष में पौर्वापर्य नहीं बताया जा सकता वैसे ही जीव और कर्म के सम्बन्ध में पौर्वापर्य नहीं है / यदि