________________ द्वादशार नयचक्र में नय का विश्लेषण / 121 12 नयों का समाहार प्रचलित नयों में करते हैं। विधि आदि नयों के द्वारा आचार्य मल्लवादी ने चिन्तन विकास का एक अभिनव प्रारूप प्रस्तुत किया है। उन्होंने इन नयों के माध्यम से तत्कालीन सम्पूर्ण दार्शनिक विचारों को एक स्थान पर गुम्फित कर दिया है / नय निरूपण के द्वारा एकान्तवाद का निरसन तथा अनेकान्तवाद की प्रतिष्ठा नयचक्र का मुख्य विषय है। नयचक्र में विधि आदि नय सबसे पहले परपक्ष का निरसन करके स्वपक्ष की स्थापना में प्रवृत होते हैं। पर पक्ष का जो निरसनात्मक अंश है वही द्वादश अरों का परस्पर अन्तर है। रथ के चक्र में नानावयवयों से नेमि बनती है, वैसे ही यहां पर चार-चार अरों से नेमि बनती है। द्वादश अरवाला यह नयचक्र त्रिमार्गात्मक है। मार्ग नेमि पर्यायवाची शब्द है। मार्गोनेमिरित्यनर्थान्तरम / प्रस्तुत नयचक्र में तीन अंश में विभक्त नेमि की कल्पना की गई है। प्रत्येक अंश को मार्ग कहा गया है। मार्ग के तीन भेद करने का कारण यह है कि प्रथम नेमि के चार अरविधिभंग द्वितीय नेमि के चार उभय भंग एवं तृतीय नेमि के चार नियम भंग होते हैं। जैसे अर नेमि से असम्बद्ध हो जाने पर अपना-अपना कार्य करने में असमर्थ हो जाते हैं ठीक वैसे ही विधि आदि 12 अर स्याद्वाद रूपी. नमि से असम्बद्ध होने पर अपने अस्तित्व को ही समाप्त कर देते हैं तथा उससे संयुक्त होकर सम्पूर्ण कार्यों के साधक होते हैं। नयचक्र में वस्तुतः जैनेतर मतों को ही नय के रूप में वर्णित किया गया है। उत्तरपक्ष के द्वारा पूर्वपक्ष का निराकरण ही नहीं किन्तु पूर्वपक्ष में जो गुण हैं उनके स्वीकार की ओर भी निर्देश दिया गया है। इस प्रकार उत्तरोत्तर जैनेतर मतों को ही नय मानकर समग्र ग्रन्थ की रचना हुई है। जैन दर्शन की सर्वनयात्मकता को सिद्ध किया गया है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने सन्मति तर्क प्रकरण में कहा है भई मिच्छादसणसमूहमइयस्स अमयसारस्स। जिणवयणस्स भगवओ संविग्गसुहाहिगम्मस्स / / नयचक्र में सारे ही नय पूर्व-पूर्व नय मत को दूषित करके अपने-अपने स्वमत की प्रतिष्ठा में क्रमशः प्रवृत होते हैं। नयचक्र में इसी रूप से विषयवस्तु का प्रारम्भ हुआ है। मल्लवादी ने विधि आदि 12 नयों की कल्पना की है अतएव नयचक्र का दूसरा नाम द्वादशार नयचक्र भी है। वे 12 नय निम्न हैं 1. विधि