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________________ 122 / आर्हती-दृष्टि 2. विधि-विधि (विधिविधिः) 3. विध्युभयम् (विधेर्विधिश्च नियमश्च) 4. विधिनियमः (विधेनियमः) 5. उभयम् (विधिश्च नियमश्च) 6. उभयविधिः (विधिनियमयोविधिः) 7. उभयोभयम् (विधि नियमयोविधिनियमौ) 8. उभयनियमः (विधिनियमयोर्नियमः) 9. नियमः / 10. नियमविधिः (नियमस्य विधिः) 11. नियमोभयम् (नियमस्य विधिनियमौ) 12. नियम-नियमः (नियमस्य नियमः) नयचक्र नय-विषयक ग्रन्थ होने पर भी उसमें नैगम आदि नयों का उल्लेख नहीं है अपितु विधि आदि 12 नयों का वर्णन है / आचार्य मल्लवादी ने बारह में से प्रथम 6 को द्रव्यार्थिक तथा शेष 6 को पर्यायार्थिक स्वीकार किया है। नैगम आदि सात नयों में भी इनका समाहार आचार्य के द्वारा किया गया है / प्रथम विधिनय का व्यवहार में 2-4 का संग्रह 5-6 का नैगम ७वे का ऋजुसूत्र 8-9 का शब्दनय १०वें का समभिरूढ तथा 11-12 का एवंभूत नय में समावेश होता है। विधि के एकाधिक अर्थ नयचक्र में उपलब्ध होते हैं,। 'विधिसाचारः' आचार को विधि कहा गया है / अनपेक्षितव्यावृति भेदार्थोद्रव्यार्थो विधिः” जिसमें भेद की कल्पना ही नहीं होती वह द्रव्यार्थ विधि है। सामान्य-द्रव्य-कारणं विधिः ये विधि के ही अर्थ हैं। नियम विशेष, पर्याय एवं कार्य को कहा गया है। पर्यायार्थतस्तु नियमः। व्यवहार का संचालन विधि से होता है, उसमें फिर नियम उपस्थित हो जाता है / नयचक्र में पूर्व नय अपने मत की स्थापना करता है / तत्काल उत्तरवर्ती नय अपने पूर्ववर्ती का निरास करके अपनी प्रतिष्ठा करता है। यह चक्र अन्त तक चलता रहता है। 1. प्रथम विधिनय वेदवादी मीमांसकों के मत का उत्थान करता है / व्यवहार का संचालन विधि से होता है / इस नय के अनुसार जीवन यात्रा के निर्वाह के लिए लोक प्रचलित वस्तु का स्वीकरण उचित है। सामान्य, विशेष कारण से कार्य सत् कारण में कार्य असत् आदि अलौकिक शास्त्रों के मतों का निरास करके क्रिया का विधान करनेवाले शास्त्रों की ही अर्थवत्ता को स्वीकार करता है। सामान्य विशेष आदि लोक तत्त्वों को प्रथमतः तो जानना ही अशक्य है तथा जान लेने पर भी उनसे कोई
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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