________________ 120 / आर्हती-दृष्टि आचार्य मल्लवादी उत्कृष्ट कोटि के जैन दार्शनिक थे / हरिभद्र ने उनका वादिमुख्य के रूप में स्मरण किया है 'उक्तं च वादिमुख्येन मल्लवादिना' कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने सिद्धहेमशब्दानुशासन की वृहदवृत्ति में उत्कृष्टेऽनूपेन सूत्र की व्याख्या में अनुमल्लवादिनं तार्किकाः' कहकर एक महान् तार्किक के रूप में उनका स्मरण किया है। आचार्य मल्लवादी दिङ्नाग के समकालीन है। उनका समय विद्वानों ने ई. 345 अर्थात् विक्रम संवत् स. 402 से 482 तक का स्वीकार किया है। 'नय विचार विकास के क्रम में मल्लवादी का अभूतपूर्व योगदान है / नयचक्र में नयों का जो विवेचन प्राप्त होता है वैसा अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता है। आचार्य मल्लवादी नयों की इस परम्परा को पूर्वो की परम्परा तक ले जाते हैं। उन्होंने स्वयं अपने ग्रन्थ का सम्बन्ध पूर्व के साथ जोड़ा है। इस सन्दर्भ में निम्न गाथा महत्त्वपूर्ण 'विधिनियमभङ्गावृत्तिव्यतिरिक्तत्वादनर्थकवचोवत्। जैनादन्यच्छासनमनृतं . भवतीति वैधर्म्यम्। ' आचार्य मल्लवादी ने इस गाथा का अवलम्बन लेंकर सम्पूर्ण द्वादशार नयचक्र की रचना की है तथा इस गाथा को पूर्व से उद्धृत मानते हैं। ऐसा उल्लेख स्वयं उनके ही ग्रन्थ में प्राप्त है—पूर्वमहोदधि समुत्पतितनयप्राभृत तरङ्गागम प्रम्रष्टश्लिष्टकणिकमात्र नयचक्रक्राख्यं संक्षिप्तार्थ गाथा सूत्रम्'. इस कथन से यह स्पष्ट है कि यह गाथा पूर्व-सम्बन्धी नयप्राभृत की एक प्राचीन गाथा है / इस गाथा से सम्बन्धित किंवदन्ती भी प्रचलित है / शासनदेवी से आचार्य मल्लवादी को वरदान प्राप्त हुआ था कि इस एक गाथा के आधार पर तुम नये नयवक्र की रचना कर सकोगे। ऐसा उल्लेख भद्रेश्वरसूरिकृत कहावली, आम्रदेवसूरिकृत आख्यान मणिकोश टीका प्रभाचन्द्र सूरिकृत प्रभावक चरित्र आदि अनेक ग्रन्थों में प्राप्त होता है। विधिनियमभङ्गा इस गाथा के आधार पर नयों का सम्बन्ध पूर्व-परम्परा से जुड़ जाता है / पूर्व-परम्परा सबसे प्राचीन है, अतः विधिनियम एवं उभय इस प्रकार का नयों का वर्गीकरण द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक और नैगम आदि से भी प्राचीन हो जाता है किन्त ग्रन्थकार ने स्वयं इन बारह नयों का समाहार दो एवं सात नयों में किया है। इससे अनुमान होता है कि उपर्युक्त गाथा भले ही पूर्वो से सम्बन्धित हो किन्तु आगमकाल में नयों की व्यवस्था का सर्वमान्य परिवर्तन हो चुका था अतः आचार्य मल्लवादी भी