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________________ द्वादशार नयचक्र में नय का विश्लेषण वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। उसकी अनन्तधर्मात्कता ज्ञान का विषय तो बन सकती है किन्तु युगपत् वचन का विषय नहीं बन सकती। ज्ञान शक्ति असीम है। शब्द शक्ति ससीम है / इस शक्ति-भेद के कारण वस्तु की व्याख्या विभिन्न प्रकार से होती है। वस्तु के इन विभिन्न धर्मों के व्यञ्जकों का नाम ही नय है। जैन परम्परा के अनुसार नयों की कोई निश्चित संख्या नहीं है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने सन्मति तर्क-प्रकरण में कहा है जावइया वयणपहा तावइया चेव होंति नयवाया। जावइया णयवाया तावइया चेव परसमया।। स. 3/47 . जितने वचन के प्रकार हैं उतने ही नयवाद हैं, फिर भी नयों की इस विस्तृत संख्या का संक्षेप दो, पांच और सात नयों के रूप में प्राप्त होता है। ___ जैन आगमों के गम्भीर अध्ययन से ज्ञात होता है कि आगम की व्याख्या पद्धति नयात्मक है, प्रमाणात्मक नहीं है / नय पद्धति प्राचीन है। प्रमाण स्वीकृति की परम्परा अर्वाचीन है। सम्भव ऐसा लगता है कि आर्यरक्षित (वि. 52, जन्म) से ही प्रमाण का स्वीकरण एवं विवेचन जैन दार्शनिक युग में हुआ है / नयों की संख्या, स्वरूप आदि के सन्दर्भ में भी समय-समय पर अनेक प्रकार का विचार-विमर्श जैनाचार्यों ने किया है। इस दृष्टि से भगवती, तत्त्वार्थसूत्र, सन्मति तर्क-प्रकरण आदि ग्रन्थ द्रष्टव्य है / प्रस्तुत निबन्ध का विवेच्य विषय आचार्य मल्लवादी के द्वादशार नयचक्र से सम्बन्धित है अतः इसी सन्दर्भ में विचार-विमर्श प्रासंगिक है। द्वादशार नयचक्र ग्रन्थकार की ग्रन्थ के नाम निर्धारण की योजना अद्वितीय एवं अपूर्व है। चक्र के माध्यम से सम्पूर्ण विषय-वस्तु को व्याख्यायित करने का स्तुत्य प्रयास आचार्य मल्लवादी की उत्कृष्ट मेधा का द्योतक है / तत्कालीन सम्पूर्ण दर्शनों का समाहार तथा अनेकान्त की वरीयता का द्योतन भी चक्र के माध्यम से स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो . जाता है।
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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