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________________ विचय-ध्यान और अनुप्रेक्षा ___ जैन धर्म में ध्यान का महत्त्वपूर्ण स्थान है / अनशन आदि से भी अधिक महत्त्व ध्यान को प्राप्त है / तपस्या के द्वारा वर्षों से जितनी निर्जरा नहीं हो सकती उतनी ध्यान से क्षणों में हो सकती है / लव सत्तमिया देव इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। भगवान महावीर ध्यान के लिए तपस्या करते थे। ध्यान के द्वारा ही वे सम्बोधि को प्राप्त हए। ध्यान के महत्त्व को प्रकट करते हुए कहा गया कि यदि अन्य जीवों के कर्मों का संक्रमण हो सकता हो तो क्षपक क्षेणी आरूढ़ मुनि अपनी ध्यान शक्ति के द्वारा सम्पूर्ण कर्मवान् प्राणियों के कर्म को काटने में समर्थ हो सकता है। जैन-ध्यान-क्रम का उल्लेख व्यवस्थित रूप से स्थानाङ्ग में प्राप्त होता है। वहाँ चार प्रकार के ध्यान का उल्लेख है-आर्त, रौद्र धर्म्य और शुक्ल। ... मेरा विवेच्य विषय विचय-ध्यान अर्थात् धर्म्य-ध्यान है / प्राकृत में 'धम्म-झाणं' शब्द का प्रयोग हुआ है, जिसका संस्कृत रूपांतरण धर्म और धर्म्य दोनों हो सकते हैं। कुछ आचार्यों ने इसका संस्कृत रूपांतरण धर्म-ध्यान स्वीकार किया है। किन्तु अधिकांश ने धर्म्य-ध्यान का ही प्रयोग किया है। धर्म से युक्त को धर्म्य कहा जाता है। धर्म शब्द के एकाधिक अर्थ प्राप्त हैं। वस्तु के स्वभाव को धर्म कहा जाता है। मोह-क्षोभ रहित आत्मा की निर्मल परिणति को भी धर्म कहा जाता है / सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र को भी धर्म कहा जाता है। क्षमा आदि भी धर्म के दस प्रकार हैं। इनको ध्येय बनानेवाला ध्यान धर्म्य-ध्यान कहलाता है। केवल निर्विचार अवस्था ही ध्यान नहीं है, राग-द्वेष शून्य, अहंकार-ममकार रहित विचार भी ध्यान है। केवल यथार्थ का अन्वेषण करनेवाला ध्यान विचय कहलाता है। विचिति, विवेक, विचारणा, विचय अन्वेषण और मार्गण समानार्थक है। विचय ध्यान के प्रकार ध्येय भेद से विचय चार प्रकार का है। द्रव्य और पर्याय अनन्त होने से ध्येय भी अनन्त हो सकते हैं। उन अनन्त ध्येयों का इन चार में समासीकरण किया गया है। अनन्त धर्मों का वर्गीकरण नहीं किया जा सकता, अतएव उनका संक्षेप में कथन है। जैसे—जितने यथार्थतावच्छिन्न ज्ञान हैं, उतने ही प्रमाण हैं, परन्तु प्रधानता से उसके दो भेद हैं / जितने विचार के भेद हैं, उतने ही नय हैं, किन्तु प्रधानता से द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दो भेद हैं। वैसे ही द्रव्य-पर्यायापेक्ष ध्येय अनन्त और उन सबका
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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