________________ 62 / आर्हती-दृष्टि जैनदर्शन जो सर्वज्ञता का प्रबल समर्थक है उसने मोक्ष के लिए सर्वज्ञता को अनिवार्य रुप से स्वीकार किया है। समस्त ज्ञानावरण के समूल नाश होने पर आत्मा का स्वभाव केवलज्ञान प्रकट होता है जब तक आवारक कर्म रहते है तब तक आत्मा का ज्ञस्वभाव प्रकट नहीं होता है। आवरक कर्मों के दूर होने पर ज्ञ-स्वभाव तो प्रकट होगा ही। ..'ज्ञस्यावरणविच्छेदे ज्ञेयं किमवशिष्यते' जैन दार्शनिकों ने प्रारम्भ से ही त्रिकालत्रिलोकवर्ती ज्ञेयों के प्रत्यक्ष दर्शन के अर्थ में सर्वज्ञता मानी है और उसका समर्थन किया। आचार्य कुन्दकुन्द जो निश्चयनय के उद्गाता थे उन्होंने कहा जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं। केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं // केवली व्यवहार नय से सब पदार्थों को जानते है / कुन्दकुन्द के इस कथन से फलित होता है कि सर्वज्ञता का पर्यवसान आत्मज्ञता में ही होता है / यद्यपि कुन्दकुन्द के अन्य ग्रन्थों में सर्वज्ञता के व्यवहारिक कथन का वर्णन और समर्थन उपलब्ध होता है। आचारांग, भगवति आदि प्राचीन आगमों में भी सर्वज्ञता का उल्लेख है-'से भगवं अरहं जिणे सव्वन्नू सव्वभाषदरिसि. . . . / ' जैन दर्शन के अनुसार सर्वज्ञता मोक्ष प्राप्ति की अनिवार्य शर्त है। सर्वज्ञ हुये बिना कोई भी मुक्त नहीं हो सकता। यद्यपि ज्ञानावरण के क्षय से पूर्व नियम से मोह कर्म का क्षय हो जाता है। अर्थात् वीतरागता के बाद ही सर्वज्ञता हो सकती है और यदि हम जैन साधना पद्धति पर ध्यान दे तो वह वीतरागता की साधना है। सर्वज्ञता की साधना का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। राग द्वेष से मुक्ति की साधना का मार्ग उपलब्ध होता है। साधक उसके लिए ही प्रयत्न करता है। _ अन्य दर्शन जो जैन दर्शन के समकालीन है, किसी ने भी मोक्ष के लिए सर्वज्ञता को अनिवार्य नहीं माना जबकि जैन दर्शन ने सर्वज्ञता को अनिवार्य माना है / ऐसा क्यों हुआ यह प्रश्न निश्चित रुप से विद्वानों की मीमांसा का विषय होना चाहिए।