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________________ 64 / आर्हती-दृष्टि समावेश आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान विचय के अन्तर्गत हो जाता है / आज्ञा आदि का विचय ध्येय है / यह ध्यान का स्वरूप नहीं है / ध्येय अनेक हो सकते हैं किन्तु ध्यान के स्वरूप अनेक नहीं हो सकते / ध्यान का स्वरूप है-स्मृतिसमन्वाहार / वह सब ध्येयों में एकरूप होता हैं / आज्ञा, अपाय आदि के विचय के लिए स्मृति-समन्वाहार करना क्रमशः आज्ञा विचय आदि है। स्मृति-समन्वाहार तथा एक आलम्बन पर चित्त का निरोध दोनों समानार्थवाची हैं / मन को एक आलम्बन में रोकना तथा दूसरे आलम्बनों से हटाना स्मृति-समन्वाहार है और यही एकाग्रचिन्ता 'निरोध . 1. आज्ञा विचय–जिनोपदिष्ट आगम के सूक्ष्म पदार्थों को आलम्बन बनाकर पदार्थ चिन्तन में चित्त के रोकने को आज्ञा-विचय कहा जाता है। 2. अपाय-विचय-शारीरिक, मानसिक दःखादि पर्यायों का अन्वेषण तथा राग-द्वेष आदि उपायों में चैतसिक एकाग्रता की प्राप्ति अपाय-विचय है।" 3. विपाक-विचय-कर्म विपाक में एकाग्रता विपाक-विचय है / विपाक व्यक्त होता है, विपाक का हेतु अव्यक्त है। फल के सहारे हेतु का साक्षात्कार किया जा सकता है / दुर्मेधा के सहारे ज्ञानावरण के सूक्ष्म पुद्गलों की, सुख-दुःख की अनुभूति से वेदनीय कर्म की अवगति हुई। विपरीत ग्राहिता के सहारे मोह कर्म की तथा जन्म-मरण की श्रृंखला से आयुष्य कर्म की पहचान हुई। शुभ, अशुभ शरीर तथा उच्च, नीच सन्तति के आधार पर नाम एवं गोत्र की तथा अलाभ के सहारे अन्तराय कर्म की शोध हुई।" विपाक विचय हेतु अन्वेषण की सर्वोत्कृष्ट प्रक्रिया है जिसके द्वारा परोक्ष का प्रत्यक्षीकरण होता है / छदस्थ व्यक्ति अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान उनके कार्यों से अनुमान के द्वारा करता हैकार्यादिलिङ्गद्वारेणैवाग्दिशामतीन्द्रियपदार्थावगमो भवति, विपाक विचय कार्य से कारण का साक्षात्कार करने की उत्तम प्रक्रिया है। 4. संस्थान-विचय–लोक की आकृति, उसमें होनेवाले पदार्थ और प्रकृति का जो चिन्तन किया जाता है वह संस्थान विचय कहलाता है / ' प्रेक्षा-ध्यान में शरीर-प्रेक्षा का प्रयोग संस्थान विचय का ही एक प्रकार है। शरीर-प्रेक्षा के द्वारा नाड़ी संस्थान जागृत हो जाता है। नाड़ी-संस्थान आन्तरिक अभिव्यक्ति का साधन है। जब वह जागृत हो जाता है, तब वह भीतर से आनेवाले कर्म विपाक को रोक लेता है। इससे साधक साधना के क्षेत्र में और अधिक गति कर सकता है। नाड़ी-संस्थान की निर्मलता चैतन्य के प्रकाश का बाहर आने का हेतु बन जाती है।
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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