________________ विषय-ध्यान और अनुप्रेक्षा ) 65 विचय ध्यान का लक्षण विचय ध्यान के चार लक्षण हैं१. आज्ञा-रुचि-अध्ययन के प्रति अनुराग। 2. निसर्ग-रुचि-सत्य के प्रति स्वाभाविक अनुराग / 3. सूत्र-रुचि-सूत्र के प्रति अनुराग। 4. अवगाढ़-रुचि-गहन सूत्राध्ययन के लिए अनुराग। स्वभाव से अथवा आगमोपदेश के द्वारा जिन-प्रणीत पदार्थों में श्रद्धान करना धर्म्य-ध्यान का लक्षण है।" विचय-ध्यान का फल :- अर्हेत् वाणी के चिन्तन से बुद्धि में उन्माद नहीं होता / राग-द्वेष के परिणाम-चिन्तन ‘से मनुष्य दोषमुक्त बनता है, कर्म-विपाक से मनुष्य अशुभ कार्य में आनन्द का अनुभव नहीं करता। जगत् वैचित्र्य को देखकर व्यक्ति संसार में आसक्त नहीं होता। ये क्रमशः आज्ञा, अपाय, विपाक एवं संस्थान विचय के फल हैं। विचय ध्यान के अधिकारी स्थानाङ्ग सूत्र में ध्यान के अधिकारियों की चर्चा प्रस्तुत नहीं की गई किन्तु उत्तरवर्ती आचार्यों ने इस संदर्भ में अपने विचार व्यक्ति किये हैं / आचार्य उमास्वाति ने सातवें गुणस्थान में स्थित एवं उपशान्त तथा क्षीणमोही को ही धर्म्य-ध्यान का अधिकारी स्वीकार किया है। इसेक विपरीत पूज्यपाद देवनन्दी तथा अकलंक ने चौथे गुणस्थान से ही धर्म्य-ध्यान का होना स्वीकार किया है / इनके मतानुसार श्रेणी आरोहण के पहले ही धर्म्य-ध्यान हो सकता है। श्रेणी आरोहण के बाद शुक्ल-ध्यान का होना ही इनको मान्य है। इस संदर्भ में एक विमर्शनीय बिन्दु है कि प्रथम तीन गुणस्थान वालों के कौन-सा ध्यान होता है / क्या इनके सिर्फ आर्त या रौद्र ध्यान ही होता है ? अथवा ये भी धर्म्य-ध्यान के अधिकारी हैं? इनका स्पष्ट उल्लेख योग ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं है। यहां यह ज्ञातव्य है कि आचार्य भिक्षु ने मिथ्यात्वी की करणी से भी निर्जरा का होना माना है / यदि मिथ्यात्वी की करणी से निर्जरा नहीं होती है तो मिथ्यादृष्टि से वह सम्यक् दृष्टि कैसे बनेगा। अतएव इसी तर्क के आधार पर प्रथम तीन गुणस्थान में धर्म्य-ध्यान का होना युक्तिसंगत लगता है। मिथ्यादृष्टि के भी विशुद्ध लेश्या, अध्यवसाय और परिणाम होते हैं। अतः जहाँ लेश्या विशुद्ध है, वहां धर्म्य-ध्यान हो सकता है। पान : कब, कहां विचय-ध्यान के संदर्भ में कुछ प्रश्न उभरते हैं / विचय ध्यान के लिए क्या-क्या