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________________ 66 / आर्हती सामग्री अपेक्षित है? उसके लिए स्थान, मुद्रा, आसन तथा समय की.क्या मर्यादाएँ हैं? इन प्रश्नों के उत्तर आचार्यों ने अपने-अपने अनुभव के आधार पर प्रस्तुत किये हैं ? ज्ञानार्णव में आचार्य शुभचन्द्र ने अनेक स्थानों का ध्यान के लिए वर्जन किया तथा शान्त एवं विजन स्थान को इसके लिए विहित बताया। इसके साथ ही उन्होंने कहा-विचय-ध्यान के लिए देश, काल की मर्यादा नहीं हो सकती। इसके लिए तो एक ही नियम है कि जिस समय में या जिस स्थान में, जिस आसन या मुद्रा में चित्त की एकाग्रता सधती है वही देश, काल, आसन, मुद्रा ध्यान के लिए उपयोगी है। विचय ध्यान के आलम्बन . देखने और जानने की क्षमता को विकसित करने के लिए आलम्बन अपेक्षित है। आलम्बन गति में सहायक होते हैं। आलम्बन के सहारे व्यक्ति दुरुहमार्ग को भी आसानी से पार कर देता है। धर्म्य-ध्यान के भी चार आलम्बन हैं 1. वाचना-आचार्य द्वारा शिष्यों को अध्यापन / 2. प्रच्छना-जिज्ञासाओं का प्रस्तुतिकरण। 3. परिवर्तना–प्रलम्ब स्मृति के लिए पुनः-पुनः पठित को दोहराना / 4. अनुप्रेक्षा-पठित का अर्थ-चिन्तन / ये आलम्बन ध्याता की ध्येय के साथ एकतानता में सहायक बनते हैं। योगदर्शन में ध्यान और समाधि ये दो भिन्न-भिन्न माने गये हैं। जैन-योग में इन दोनों को एक ध्यान शब्द के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। पतञ्जलि का 'तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् (३/२)जैन-योग का धर्म्य-ध्यान है और योगदर्शन प्रतिपादित समाधि जैन-योग का शुक्ल ध्यान है / विचय की तुलना बौद्ध सम्मत क्लेश उन्मूलक धर्म-प्रविचय से की जा सकती है / बौद्ध के एक प्रस्थान झेन में समस्या देकर व्यक्ति को बिठा दिया जाता है, उसके द्वारा समाधान प्राप्त करना ये विचय ध्यान के ही प्रयोग हैं। जैन-योग में धर्म्य-ध्यान के आज्ञा, विचय आदि ही प्रकार उपलब्ध हैं। फिर आचार्य सिद्धसेन ने विचय की पृथक् परिभाषा प्रस्तुत की है। मिथ्यात्व एवं कषायरूपी आश्रवों के संवर को ही उन्होंने धर्म्य-ध्यान का मुख्य उद्देश्य बताया है। परम्परागत आज्ञा, अपाय, विपाक एवं संस्थान विचय के स्थान पर चित्त, विषय एवं शरीर के स्वभाव दर्शन पर" जो बल दिया है, वह सिद्धसेन दिवाकर की अपनी मौलिक उद्भावना है। विचय ध्यान की अनुप्रेक्षा ध्यान से शक्ति का जागरण होता है। स्वाध्याय से जाना जाता है कि शक्ति
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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