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________________ 18 / आर्हती-दृष्टि शोध/ संपादन के कार्य में निरत उनकी अन्तःप्रज्ञा नित्य नवीन तथ्यों को उद्घाटित करने में समर्थ है। गुरुदेव श्री तुलसी एवं आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी के अथक परिश्रम से जैनागमों का पुनरुद्धार हुआ है एवं हो रहा है। गुरुदेव श्री तुलसी ने अनेक बार कहा-आज जैन विद्या के गम्भीर विद्वानों की आवश्यकता है / उनका निमण किया जाये, यह वर्तमान युग की महती आवश्यकता है। अपने इस चिन्तन की 'क्रयान्विति के लिए उन्होंने अपने जीवन काल में सघन प्रयल किये। आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी उनके हर चिन्तन एवं क्रियान्वयन में अनन्य सहयोगी बने रहे। ___ जैन विद्या का सघन प्रशिक्षण दिया जाये इस दिशा में वर्षों से प्रयल चल ही रहे थे। एक बार लाडनूं में 1986 में आचार्यश्री तुलसी के सान्निध्य एवं तत्कालीन युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ जी के निर्देशन में विधिवत् स्नातकोत्तर स्तर के पाठ्यक्रम का निर्धारण हुआ। प्रारम्भ में कुछ व्यक्तियों को उस पाठ्यक्रम के अध्ययन के लिए चयनित किया गया। उस अध्ययन प्रक्रिया में मुझे भी योजित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। अध्ययन के लिए आठ पेपर निर्धारित हुये। पाठ्यक्रम मुख्यत: आगम एवं आगम के निकटवर्ती ग्रंथों के आधार पर निर्मित हुआ, जिसमें जैन दर्शन की अनेक नवीन एवं मुख्य अवधारणाओं का समावेश हुआ। पाठ्यक्रम निर्माण के साथ ही उसके अध्ययन का मुख्य दायित्व परमपूज्य आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी पर था। मुझे अच्छी तरह स्मरण है कि आठ में से चार पेपर का अध्ययन पूज्य आचार्यवर ने करवाया था। दो-दो पेपर के अध्यापन का दायित्व अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त डॉ. नथमल टाटिया एवं विश्रुत विद्वान् डॉ. दयानन्द भार्गव ने बड़ी ही निष्ठा के साथ वहन किया था ।इस अध्ययन काल में वाचन के साथ-साथ विद्यार्थी को लेखन के लिए प्रोत्साहित किया जाता / सप्ताह अथवा पन्द्रह दिन में विद्यार्थी को अपने पाठ्य विषय पर कुछ लिखना आवश्यक होता था। पन्द्रह दिन में गुरुदेव के सानिध्य में संगोष्ठी होती थी, जिसमें सभी विद्यार्थियों को अपना लिखित वक्तव्य प्रस्तुत करना होता था। यह क्रम गुरुदेव के लाडनूं प्रवास में प्राय: चलता रहा, जिससे विद्यार्थियों की लेखन के प्रति अभिरुचि बनी रही, तत्पश्चात् परीक्षा के लक्ष्य से भी उस विषय से सम्बन्धित लेखन का क्रम निरन्तर चलता रहा ।समणश्रेणी के बारह वर्ष की सम्पन्नता पर एक चिंतन उभरा कि इस अवसर पर पूज्य गुरुदेव के श्री चरणों में कोई रचनात्मक उपहति प्रस्तुत की जाये। क्रियान्वयन के फलस्वरुप उस समय मैंने भी जैन दर्शन से सम्बन्धित लेखों का संग्रह 'अर्पणा' नाम से गुरुदेव के श्रीचरणों में उपहृत किया। उसीका संवर्धित एवं र
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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