SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना अस्तित्व की जिज्ञासा के साथ दर्शन का जन्म होता है। जीव एवं जगत् के अस्तित्व को जानने/समझने की मनोवृत्ति ने दर्शन जगत् में विभिन्न आयामों का उद्घाटन किया है। आचारांगसूत्र 'मैं कौन हूं?, कहां से आया हूं? इस अस्तित्व की जिज्ञासा से ही प्रारम्भ होता है। द्रष्टा पुरुषों ने आत्मदर्शन की प्रक्रिया के द्वारा इस जिज्ञासा को समाहित किया। आगम युग में आत्म-साक्षात्कारकर्ता ऋषि उपस्थित थे। उन्होंने साधना के द्वारा वस्तु सत्य का साक्षात्कार किया तथा स्याद्वाद मर्यादित वाणी से उसको अभिव्यक्त किया। जब तक आत्मद्रष्टा ऋषि उपस्थित थे तब तक वस्तु सत्य के निरुपण के लिए हेतुवाद' के उपयोग की आवश्यकता नहीं थी। ऋषि युग में हेतु नहीं था ऐसा तो नहीं कहा जा सकता किन्तु उसके प्रयोग का क्षेत्र सीमित था, यह निर्विवाद स्वीकृति है। समय बदला। साक्षात् द्रष्टा ऋषि परम्परा विच्छिन्न हो गयी। तब सत्य प्राप्ति का साधन हेतु बना ।आगमयुग में सत्य बोध का साधन ऋषियों का साधना बल था। दर्शन-युग में वह स्थान तर्क एवं हेतु को प्राप्त हो गया। आगम युग में प्राप्त सत्यों को प्रमाण एवं तर्क के द्वारा सुरक्षित रखने का प्रयल किया गया। जिस सत्य का अन्वेषण ऋषियों ने किया था, तर्कग में उसे हेत की कसौटी पर कसने का प्रयल हुआ। सभी भारतीय दार्शनिक परम्पराओं का प्रवेश प्रमाण के क्षेत्र में हुआ। जैन परम्परा भी इससे अछूती नहीं रही।यद्यपि यह सत्य है कि प्रमाण युग में जैन तार्किकों का प्रवेश अन्य तार्किकों की अपेक्षा बाद में हुआ। जैन दार्शनिक, प्रमाणयुग में प्रवेश करके अपने समकालीन चिंतकों की श्रेणी में तो प्रविष्ट हो गये किन्तु आगमयुग में प्राप्त सत्यों को यथावत् सुरक्षित नहीं रख सकें, अपितु यों भी कहा जा सकता है कि आगम की बहुत-सी मौलिक प्रस्थापनाएं उनके हाथ से निकल गयी। . ___ आगम के आलोक में दर्शन की प्रस्तुति आज के युग की अनिवार्य अपेक्षा है। आचार्यश्री तुलसी एवं आचार्य श्री महाप्रज्ञ इस अपेक्षा को अनेक बार अभिव्यक्त कर चुके हैं। आगम का दर्शन महत्त्वपूर्ण है, वर्तमान युग में उसकी प्रस्तुति की अपेक्षा है। आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी अहर्निश इस दिशा में प्रयलशील है। वर्षों से आगम
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy