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________________ 82 / आर्हती-दृष्टि शब्द विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त होता रहा है / दर्शन शब्द के तीन अर्थ सभी दार्शनिक परम्पराओं में मान्य रहे हैं—(१) चाक्षुष ज्ञान अर्थ में दर्शन शब्द का प्रयोग यथा—घट दर्शन, (2) आत्म-साक्षात्कार अर्थ में दर्शन शब्द का प्रयोग यथा-आत्मदर्शन एवं (3) सांख्य दर्शन, न्याय दर्शन आदि विशिष्ट विचारधारा के अर्थ में दर्शन शब्द का प्रयोग सर्वविदित है। जैन परम्परा में इन तीन अर्थों के अतिरिक्त दर्शन के दो अन्य अर्थ भी प्रचलित हैं- एक अर्थ श्रद्धान रूप दर्शन एवं दूसरा वस्तु के सामान्य बोध के अर्थ में प्रयुक्त है। प्रस्तुत प्रसंग में दर्शन का श्रद्धान रूप अर्थ अभिप्रेत है। 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' जीव आदि तत्त्वों पर श्रद्धा करना सम्यक् दर्शन है। . सम्यग्दर्शन का बहुप्रयुक्त जैन शब्द सम्यकत्व है। सम्यक्त्व एवं सम्यक् दर्शन * एकार्थक है / सम्यक् दर्शन के अभाव में क्रिया करता हुआ तथा स्वजन आदि का परित्याग करता हुआ भी मिथ्यादृष्टि जीव सिद्ध नहीं होता। आचारांग नियुक्ति में कहा गया है कुणमाणोऽवि य किरियं परिच्चयन्तो वि सयणधणभोए। -. दिन्तोऽवि दुहस्स उरं न जिणइ * अन्धो पराणीयं // अहिंसा शाश्वत धर्म है / यह आचार पक्ष है / इसकी पृष्ठभूमि में सम्यक्त्व है। जब तक नवतत्त्व एवं षड्जीव-निकाय के प्रति श्रद्धा और सम्यग् बोध नहीं होता तब तक अहिंसा धर्म के अनुशीलन की पृष्ठभूमि भी तैयार नहीं होती। सम्यक्त्व आचार एवं विचार का केन्द्रीय तत्त्व है। . सम्यक्त्व प्राप्ति के हेतु सम्यक्त्व सम्पूर्ण धार्मिक आराधना का आधारभूत तत्त्व है। जैन परम्परा में उसके प्राप्ति के हेतुओं पर भी विस्तृत विचार हुआ है / सम्यक्त्व परिणाम की उत्पत्ति सहेतुक है अथवा निर्हेतुक? इस जिज्ञासा के समाधान का स्वरूप यह हो सकता है कि सम्यक्त्व निर्हेतुक नहीं हो सकता क्योंकि जो वस्तु निर्हेतुक है वह सदा एवं सर्वत्र सबमें युगपत् होनी चाहिए अथवा उसका सार्वकालिक अभाव होना चाहिए किन्तु सम्यक्त्व न तो सबमें समान है न ही उसका सर्वत्र अभाव है अतः वह सहेतुक है। यद्यपि तत्त्वार्थ में सम्यक्त्व को निसर्गज एवं अधिगमज उभय रूप स्वीकार किया है-'तनिसर्गादधिगमाद्वा' किन्तु निसर्ग सम्यक्त्व में भी पूर्व कारणता तो विद्यमान रहती ही है अतः सम्यक्त्व परिणाम सहेतुक है। सम्यक्त्व परिणाम को सहेतुक मानने पर यह विकल्प उपस्थित होता है कि
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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