________________ सम्यग्दर्शन-स्वरूप विमर्श | 83 उसका नियत हेतु क्या है ? प्रवचन-श्रवण, भगवत् भक्ति आदि जो सम्यक्त्व प्राप्ति में बाह्य हेतु माने जाते हैं उनको तो सम्यक्त्व का नियत कारण स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि इन हेतुओं के सद्भाव में भी सम्यक्त्व प्राप्ति संदिग्ध है। अतः इस जिज्ञासा का यही समाधान हो सकता है कि सम्यक्त्व परिणाम प्रकट होने में नियत कारण जीव का तथाविध भव्यत्व नामक अनादि पारिणामिक स्वभाव-विशेष ही है। जब इस पारिणामिक भव्यत्व का परिपाक होता है तभी सम्यक्त्व का लाभ होता है। सम्यक्त्व के प्रकार सम्यक्त्व गुण प्रकट होने में आभ्यन्तर कारणों की जो विविधता है वही क्षायोपशमिक, क्षायिक आदि सम्यक्त्व के भेदों का आधार है। सम्यक्त्व के पाँच प्रकार का उल्लेख करते हुए जैन-सिद्धान्त-दीपिका में कहा है _ 'औपशमिक-क्षायिक-क्षायोपशमिक-सास्वादनवेदकानि' ।अनन्तानुबन्धि चतुष्क एवं दर्शन मोहनीय त्रिक, इन सत प्रकृतियों का क्षयोपशम, क्षय एवं उपशम क्रमशः क्षायोपशमिक, क्षायिक एवं औपशमिक सम्यक्त्व का कारण बनता है। औपशमिक सम्यक्त्व से गिरते समय मिथ्यात्व प्राप्त करने से पूर्व की स्थिति सास्वादन सम्यक्त्व है। क्षायोपशमिक से क्षायिक सम्यक्त्व की ओर जाते समय उसकी अन्तिम प्रकृति का वेदन वेदक सम्यक्त्व कहलाता है / सम्यक्त्व प्राप्ति के क्रम की कर्मग्रन्थों में विशद चर्चा है / यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण एवं अनिवृत्तिकरण की प्रक्रिया से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। .. जैन आगमों में सम्यक्त्व के विचार का क्रमिक विकास उपलब्ध है / पं. दलसुख भाई मालवणिया का अभिमत है कि केवल श्रद्धा अर्थ में सम्यक्त्व शब्द का अर्थ मौलिक नहीं है। जीवन में जो कुछ सम्यक् हो सकता है, उसी का सम्बन्ध सम्यक्त्व से है। किन्तु जब मोक्ष के उपायों की विशिष्ट चर्चा का प्रारम्भ हुआ तब श्रद्धा और सम्यक्त्व का एकीकरण हुआ और वह विस्तृत अर्थ छोड़कर संकुचित अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। शब्द के अर्थ का समय के प्रवाह में संकोच विस्तार होता रहता है / सम्यक दर्शन, श्रद्धा, विश्वास, प्रतीति, रुचि आदि सम्यक्त्व के ही पर्यायवाची नाम हैं। जैन आगमों के अवलोकन से सम्यक्त्व के अर्थ एवं भाव की विकास यात्रा का सांगोपांग अवबोध हो जाता है। आचारांग सर्वाधिक प्राचीन जैनागम है / उसके चतुर्थ अध्ययन का नाम सम्यक्त्व है। नियुक्तिकार भद्रबाहु स्वामी ने उसके अधिकार को बताते हुए कहा—'पढमे सम्मावाओ' प्रथम उद्देशक में सम्यग्वाद का अधिकार है। सम्यग् अविपरितो वादः सम्यग्वादो यथावस्थितवस्त्वाविर्भावनं' अविपरीत अर्थात् यथार्थ वस्तु तत्त्व का