________________ 84 / आर्हती-दृष्टि प्रतिपादन सम्यग्वाद है। यहां सम्यक् शब्द का श्रद्धा रूप अर्थ परिलक्षित नहीं हो रहा है / आचारांग के सम्यक्त्व अध्ययन में सम्यक्त्व एवं मुनि जीवन का एकीकरण हुआ जं सम्मति पासहा तं मोणं ति पासहा। जं मोणं ति पासहा तं सम्मं ति पासहा॥ जो सम्यक्त्व है उसे मुनिधर्म के रूप में तथा जो मुनिधर्म है उसको सम्यक्त्व के रूप में देखो। आचारांग प्रधान रूप से नैश्चयिक सम्यक्त्व का प्रतिपादक ग्रन्थ है जे अणण्णदंसी से अणण्णारामे। जे अणण्णारामे से अणण्णदंसी। आत्म-साक्षात्कार के रूप में नैश्चयिक सम्यक्त्व का निरूपण प्रस्तुत ग्रन्थ में प्राप्त . है / सम्यक्त्व के स्वरूप का निरूपण करते हुए सूत्रकृतांग में कहा गया है सोच्चा य धम्मं अरिहन्त भासियं समाहितं अट्ठपदोवसुद्धं / तं सद्दहमाणा य जणा अणाऊ इन्दा व देवाहिव आगमिस्संति॥ . अर्हत् भासित, शुद्ध अर्थ एवं पदयुक्त इस धर्म को सुनकर जो इसमें श्रद्धा करते हैं वे मोक्ष को प्राप्त करते हैं अथवा इन्द्र की तरह देवताओं के अधिपति होते हैं। यहां पर दर्शन का श्रद्धान रूप अर्थ लक्षित होता है। सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुत-स्कन्ध में श्रमणोपासक में भी सम्यक्त्व के लक्षणों द्वारा भी श्रद्धान अर्थ लक्षित है / उनको जीव-अजीव के ज्ञाता, कुशल, निम्रन्थ प्रवचन में निःशंक निष्कांक्ष आदि विशेषणों से युक्त बताया है-समणोवासगा भवंति अभिगय जीवा-जीवा णिसंकिया णिक्कंखिया। ___ सूत्रकृतांग में निशंका, निष्कांक्ष और निर्विचिकित्सा जो सम्यक्त्व के अंग है उनका एक साथ प्रयोग हुआ है। जीव-अजीव आदि तत्त्व श्रद्धा के विषय हैं तथा श्रमण की तरह श्रमणोपासक भी सम्यग्दृष्टि होता है इसका स्पष्ट उल्लेख प्राप्त है। उत्तराध्ययन में सम्यक्त्व की अवधारणा का विकसित एवं स्पष्ट वर्णन प्राप्त है। सम्यक्त्व को परिभाषित करते हुए २८वें अध्ययन में कहा है तहियाणं तु भावाणं सम्भावे उवएसणं। . भावेणं सहतस्स सम्मत्तं तं विहाहियं / / .