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________________ सम्यग्दर्शन : स्वरूप विमर्श - सत्य प्राप्ति की जिज्ञासा के साथ साधक साधना के क्षेत्र में गतिशील बनता है। प्रश्न उपस्थित होता है कि साधना का आदि बिन्दु क्या है ? धर्म का मूल क्या है ? इसके समाधान में चिन्तकों ने विभिन्न दृष्टिकोण से अपने मन्तव्यों को प्रस्तुत किया है। दशवैकालिक सूत्र में विनय को धर्म का मूल कहा गया है 'विणओ धम्मस्स मूलो'। कहीं पर दया, दान आदि को आचार/साधना का मूल माना गया है किन्तु समग्र दृष्टि से चिन्तन करने पर ज्ञात होता है कि जैन धर्म/दर्शन की आधारशिला दर्शन अर्थात् सम्यक् दर्शन है। आचार्य कुन्दकुन्द ने दर्शन पाहुड़ में स्पष्ट कहा है-'दसणमूलो धम्मो', धर्म का मूल दर्शन है / जैन आचार का प्राण-तत्त्व सम्यक् दर्शन है / सम्यक् दर्शन के अभाव में ज्ञान एवं चारित्र की मुक्ति मार्ग में कोई उपयोगिता नहीं है। सम्यक्त्व के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए श्रीमद् जयाचार्य ने कहा है- जे समकित बिन हैं, चारित्र नी किरिया रे। बार अनन्त करी, पिण काज न सरिया रे / / ____ सम्यक्त्व के अभाव में अनन्त बार चारित्र की क्रिया करने पर भी समीहित लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी टीका में दर्शन के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है - प्रष्टेनापि च चारित्राद् दर्शनमिह दृढ़तरं ग्रहीतव्यम्। - सिध्यन्ति चरणरहिता दर्शनरहिता न सिध्यन्ति / जैन दर्शन दृष्टि शुद्धि पर विशेष बल देता है / जैन दर्शन में सम्यक्त्व को विशिष्ट स्थान प्राप्त है / जिस प्रकार ताराओं में चन्द्र और पशुओं में सिंह प्रधान है उसी प्रकार मुनि एवं श्रावक धर्म में सम्यक्त्व प्रधान है। तत्त्वार्थ सूत्र के प्रथम सूत्र में ही मुक्ति मार्ग का वर्णन करते हुए कहा गया है- 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' अर्थात सम्यक् दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र की एकात्मकता ही मुक्ति का मार्ग है / मुक्तिमार्ग में प्राथमिकता एवं वरीयता सम्यक् दर्शन को ही प्राप्त है। . सम्यक् दर्शन का अर्थ है दृष्टि की यथार्थता/अविपरीतता / दर्शन जगत् में दर्शन
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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