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________________ 34 / आर्हती-दृष्टि - यह जिजीविषा सभी प्राणियों में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। तर्कशास्त्र का नियम है कि सत् सप्रतिपक्ष होता है / 'यत्सत् तत्सप्रतिपक्षम्' जो सत् है वह सप्रतिपक्ष है। जिसके प्रतिपक्ष का अस्तित्व नहीं है उसके अस्तित्व को तार्किक समर्थन नहीं मिल सकता / यदि चेतन नामक सत्ता नहीं होती तो न चेतन = अचेतन-इस अचेतन सत्ता का नामकरण और बोध ही नहीं होता। . आत्मा और पुद्गल में परस्पर अत्यन्ताभाव है / जैन दर्शन के अनुसार जीव का अजीव होना और अजीव का जीव होना सर्वथा असम्भव है। इन दोनों का स्वभाव त्रिकाल में भी परिवर्तित नहीं हो सकता। निषेध भी सत् का होता है जो है ही नहीं उसका निषेध नहीं हो सकता। गुण द्वारा गुणी का ग्रहण आत्मा गुणी है। चैतन्य उसका गुण है। गुण हमारे प्रत्यक्ष है आत्मा परोक्ष / परोक्ष गुणी की सत्ता प्रत्यक्ष गुण से प्रमाणित हो जाती है / जैसे—'अदृष्टोऽपि पदार्थों लभ्यमान लिङ्गेन गृह्यत एव' प्रकाश और आतप के द्वारा सूर्य को कमरे में बैठा हुआ व्यक्ति भी जान लेता है। चैतन्य आत्मा का विशिष्ट गुण है। वह चैतन्य आत्मा के अतिरिक्त अन्य पदार्थों में नहीं मिलता है अतएव चैतन्य की उपलब्धि ही आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध कर रही है। संकलनात्मक ज्ञान एवं स्मृति इन्द्रियां अपने-अपने विषय को ग्रहण कर सकती हैं किन्तु उनका संकलनात्मक ज्ञान वे नहीं कर सकतीं जबकि मैं स्पर्श, रस आदि को जानता हूं ऐसे संकलनात्मक ज्ञान की प्रतीति होती है और जो यह ज्ञान करती है वही आत्मा है। स्मृति भी आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करती है। इन्द्रियों के नष्ट हो जाने पर भी उनके द्वारा गृहीत विषय का स्मरण बना रहता है / जो स्मार्ता है वही आत्मा है। . इन्द्रिय प्रत्यक्ष की असमर्थता इन्द्रिय प्रत्यक्ष आत्मा को नहीं जानता पर इतने मात्र से आत्मा के अस्तित्व को नहीं नकारा जा सकता। इन्द्रिय से तो हम दो-तीन पीढ़ी पूर्व के पूर्वजों को भी नहीं जानते क्या इतने मात्र से उनका अभाव हो जाएगा। आत्मा अमूर्त है इन्द्रिय ग्राह्य नहीं। भगवान् महावीर ने कहा-'नो इन्दियगेज्झ अमुत्तभावा' इन्द्रिय तो सूक्ष्म, दूरवर्ती एवं व्यवहित पदार्थों को नहीं जानती पर ऐसे पदार्थों का अस्तित्व अवश्य है अतः इन्द्रिय ग्राह्य न होने पर भी आत्मा का अस्तित्व अवश्य है / '
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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