________________ आत्म मीमांसा / 33 काठिन्याबोधरूपाणि भूतान्यध्यक्षसिद्धितः। . चेतना तु न तद्रूपा सा कथं तत्फलं भवेत् / / अतएव यह स्पष्ट रूप से सिद्ध हो जाता है कि भूतों से अतिरिक्त भी आत्मा का अस्तित्व है। आत्मा की प्रत्यक्षादि प्रमाण से सिद्धि - आत्मा की सिद्धि किसी प्रमाण से नहीं होती यह कथन भी समीचीन नहीं है क्योंकि आत्मा के साधक प्रत्यक्षादि प्रमाणों का सद्भाव है। प्रत्यक्ष चार प्रकार का स्वीकृत है (1) इन्द्रिय, (2) मानस, (3) योगज, (4) स्वसंवेदन। प्रथम दो प्रत्यक्ष आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने में समर्थ नहीं हैं। योगज प्रत्यक्ष हमारे से परोक्ष होने से बुद्धि का विषय नहीं है। चतुर्थ स्वसंवेद्य प्रत्यक्ष के द्वारा आत्मा सिद्ध है। अहं सुखी, अहं दुखी-इस प्रकार का ज्ञान आत्मा के होने पर ही हो सकता है अन्यथा नहीं / प्रतिवादी कह सकता है कि अहं प्रत्यय तो शरीराश्रित भी होता है / अतः यह अनैकान्तिक है तथा अपने साध्य को सिद्ध करने में असमर्थ है। उनका यह वचन भी तर्कसंगत नहीं है क्योंकि अहं प्रत्यय शरीराश्रित भी होता है उसमें आत्मवादी के कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि आत्मा के साथ शरीर का अनादिकाल से सम्बन्ध होने से इस प्रकार का ज्ञान पैदा होता है / स्वामी अपने निकट के भृत्य को 'यह मैं ही हूं' ऐसा कहते हुए देखा जाता है तथा 'अहं सुखी' इत्यादि अन्तर्मुख प्रत्यय आत्मा को ही आलम्बन बना पैदा होते हैं जैसा न्यायमंजरी में कहा हैसुखादिचैत्यमानं हि स्वतंत्रं नानुभूयते, मतुबर्थानुवेधात्तु सिद्धं ग्रहणमात्मनः। इदं सुखमिति ज्ञानं दृश्यते न घटादिवत, अहं सुखीति तुज्ञप्तिरात्मनोऽपि प्रकाशिका // “मैं सुखी' इत्यादि अनुभव शरीर को नहीं हो सकते किन्तु उसे होते हैं जो शरीर से भिन्न है / शंकराचार्य के शब्दों में सबको यह विश्वास होता है कि 'मैं हूं। मैं नहीं हूं' ऐसा विश्वास किसी को नहीं होता—'सर्वोप्यात्माऽस्तित्वं प्रत्येति न नाहमस्मीति / ' जिजीविषा जीवत्व सिद्धि का प्रबल साधक प्रमाण है। जातमात्र क्षुद्रकीट में भी जिजीविषा होती है। पातंजल योगभाष्य में कहा गया—'मा भुवंमा भुयासम्' ऐसा कोई नहीं चाहता मैं नहीं था एवं नहीं होऊ / भगवान् महावीर ने भी कहा सब्वे जीवा वि इच्छंति जीविठं न मरिजिउं / /