________________ 194/ आर्हती-दृष्टि और स्वभाव निष्पन्न है। संसार में जितने द्रव्य हैं, उतने ही रहेंगे, उनमें तिलमात्र भी घट-बढ़ नहीं हो सकती / प्रत्येक पदार्थ बदलता है, बार-बार अपने रूप बदलता है। परिवर्तन ध्रुव सिद्धान्त है / जैन दर्शन के अनुसार परिवर्तन का नाम ही सृष्टि है। जगत् स्वाभाविक है, सृष्टि कृत्रिम है। हम सृष्टि का निर्माण कर रहे हैं / जगत् का मूल कारण है चेतन और अचेतन का अस्तित्व / सृष्टि का मूल कारण है जीव और पुद्गल में होनेवाला परिवर्तन जैन दर्शन के अनुसार चेतन अचेतन अनादि है। इनमें परिवर्तन होता रहता है। परिवर्तन से हास एवं विकास दोनों होते हैं। उत्सर्पिणी विकास का एवं अवसर्पिणी ह्रास का प्रतीक है / विकास और ह्रास का हेतु काल है। प्रतिपाद्य के निष्कर्ष 1. जगत् परिपूर्ण है, उसमें विकास ह्रास नहीं होता। पदार्थ जितने हैं उतने ही रहेंगे। 2. जीव पुद्गल के संयोग से सृष्टि होती है। 3. पर्यायवाद के आधार पर जैन सृष्टि को मानता है। 4. जीव का विकास अव्यवहार राशि से शुरू होता है और मुक्तावस्था में सम्पन्न हो जाता है।