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________________ -- लोकवाद : विकास का सिद्धान्त / 193 अभव्य जीव विकास की सर्वोत्कृष्ट अवस्था को प्राप्त नहीं कर सकेंगे यह उनकी नियति है। भव्य भी सारे चरम विकास को प्राप्त नहीं होंगे / उनको विकास का अवसर ही उपलब्ध नहीं होता। यदि होता भी है तो वे सम्पूर्ण मार्ग को तय नहीं कर पाते। ____ जीव अपनी पहली ( अव्यवहार राशि) एवं अन्तिम अवस्था (मुक्तावस्था) में समान होते हैं। उनमें किसी भी प्रकार का विभाग नहीं होता। इन दोनों अवस्थाओं के मध्य में जीव के विकास में असमानता परिलक्षित होती है। अकेला चेतन या अकेला अचेतन विकास नहीं कर सकता, दोनों के संयोग से ही विकास होता है। चार्ल्स डार्विन के विकासवाद की आंशिक तुलना जैन लोक विकासवाद से की जा सकती है। डार्विन का मन्तव्य है कि आरम्भ में प्रत्येक जीवित वस्तु का रूप अंत्यधिक सरल होता है। यह स्थिति असम्बद्ध, अनिश्चित समानता की स्थिति है। अर्थात ऊपर से वस्तु के विभिन्न रूप इतने समान होते हैं कि उनमें कोई निश्चित सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता लेकिन जैसे-जैसे उस वस्तु का विकास होता है उसके विभिन्न अंग एक-दूसरे से बिलकुल भिन्न हो जाते हैं। जैन के अनुसार भी अव्यवहार राशि के जीवों में कोई विभाग नहीं होता। उनमें न भाषा का व्यवहार होता है न चिन्तन का। वे सब एक श्रेणी के होते हैं / व्यवहार राशि में आने के बाद उनकी समानता समाप्त हो जाती है ।व्यवहार राशि से ही विकास के अग्रिम सपनों का वे आरोहण करते हैं - जैन के अनुसार विकास का कारण कोई एक तत्त्व नहीं है / परन्तु अनेक कारणों के समवाय से कार्य घटित होते हैं। काल, स्वभाव आदि सारे कारण सम्मिलित होकर ही विकास को घटित करते हैं। जैन दर्शन के अनुसार जगत् का विकास नहीं हो सकता, वह परिपूर्ण है। द्रव्य कम अधिक नहीं हो सकते। द्रव्यं नोत्पद्यते किञ्चित् न विनश्यति किञ्चन / केवलं परिवर्तोऽस्ति, सृष्टिरेषा तवोदिता / / कोई द्रव्य न उत्पन्न होता है, न विनष्ट होता है, केवल उसमें परिवर्तन होता रहता है। प्रभो ! तुम्हारे शासन में इस परिवर्तन का नाम ही सृष्टि है / कुछ दार्शनिक मानते हैं कि सृष्टि की रचना ईश्वर ने की है। जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि का कर्ता ईश्वर नहीं है। वह स्वतः है, सापेक्ष है। द्रव्य की दृष्टि से यह जगत् है, पर्याय की दृष्टि से यह सृष्टि है। जगत् स्वाभाविक है। पर्याय परिवर्तन सहेतुक और निर्हेतुक है। लोगो अकिट्टिमो खलु अणाइ निहनो सभाव निष्फन्तो' लोक अकृत्रिम है, अनादि निधन है
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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