________________ 192 / आर्हती-दृष्टि : भेद से दो प्रकार की हैं। धर्म आदि चार में स्वाभाविक पर्याय है / जीव और पुद्गल में वैभाविक पर्याय भी है। काल के निमित्त से होने वाली स्वभाव पर्याय है। जीव के निमित्त से पुद्गल में और पुद्गल के निमित्त से जीव में जो परिवर्तन होता है वह उनकी विभाव पर्याय है। जीव और पुद्गल एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं और उससे ही दृश्य जगत् का विकास होता है / सांख्य ने सृष्टिक्रम में पुरुष को साक्षी मात्र स्वीकार किया है। प्रकृति के द्वारा ही जगत् का सम्पूर्ण विकास-क्रम दिखाने का प्रयत्न किया है। जैन प्रकृति अर्थात् पुद्गलास्तिकाय को विकास का एक बिन्दु ही मानता है। जैन की विकास क्रमबद्धता सांख्य से अधिक स्पष्ट प्रतीत होती है। जैन दृष्टि के अनुसार. दृश्य विश्व का परिवर्तन जीव और पुद्गल के संयोग से होता है / परिवर्तन स्वाभाविक एवं प्रायोगिक दोनों प्रकार से होता है / स्वाभाविक परिवर्तन सूक्ष्म होने से दृष्टिगम्य नहीं है / प्रायोगिक परिवर्तन स्थूल होता है / दृष्टिगम्य होता है, यही सृष्टि या दृश्य जगत् है। जीव की विकास यात्रा अव्यवहार राशि से प्रारम्भ होती है और मुक्तावस्था में सम्पन्न हो जाती है। मुक्तावस्था की प्राप्ति जीव का सर्वोत्कृष्ट विकास है। प्राणी का निम्नतम विकसित रूप निगोद है / निगोद अनादि वनस्पति है / यह जीवों का अक्षय कोश है और मूल स्थान है। संसार के अथवा मुक्तावस्था के सम्पूर्ण जीवों का प्रथम रूप निगोद ही होता है / निगोद में सबको रहना होता है / यह नियति है। इनमें विकास की कोई प्रवृत्ति नहीं होती / मनुष्य का विकास वनस्पति से होता है। यह सम्पर्ण जीवों के विकास का आधारभूत है। निगोद के जीवों में कोई विभाग नहीं होता। वहां से निकलने के बाद वे विभाग के जगत् में प्रवेश करते हैं। वे विभाग हैं—पृथ्वी, अप्, तैजस, वायु, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय, समनस्क, अमनस्क आदि / यह सारा विकास अव्यवहार राशि से व्यवहार राशि में आने वाले जीवों का होता है। जीव अपनी स्वतन्त्र संकल्प शक्ति के आधार पर अव्यवहार राशि से नहीं निकल सकता / काल लब्धि का परिपाक होने पर ही जीव अव्यवहार राशि में आ सकता है। व्यवहार राशि में आने के बाद ही वह द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय आदि भूमिका को प्राप्त होता हआ केवलज्ञान की स्थिति तक पहुंच जाता है। यह सारा जैविक विकास स्वतन्त्र इच्छा शक्ति और संकल्प शक्ति के आधार पर होता है। यहां एक बात स्मरणीय है कि सम्पूर्ण जीवों का सर्वोत्कृष्ट विकास नहीं होता। विकास यात्रा के वे सहभागी कुछ . अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं। कुछ उस दौड़ में पीछे रह जाते हैं। कुछ दौड़ने के अधिकारी भी नहीं होते हैं / संसारी जीव दो प्रकार के होते हैं। भव्य और अभव्य /